निखरता आज
जिस गुलाब को छूता हूँ,
मुरझा जाता है.
जिस दर्पण को देखता हूँ,
टूट जाता है.
जिस रास्ते पर चलूँ,
काँटों की सेज है,
लम्बी बहुत है वो,
संघर्षों की मेज़ है.
मुरझाओ इतना,
चाहो जितना.
टूटना चाहो, टूट जाओ,
चुभना चाहो तो चुभ जाओ.
लहुलुहान हो चलूँगा ,
अंगारों के सागर पर.
जल के लिये तरसूँगा,
ज्वाला के गागर पर.
फिर,
मुरझाए गुलाबों को,
टूटे दर्पणों को,
बिखरे काँटों को,
प्यार से बटोरूँगा.
मुरझाए गुलाबों से,
पंखुड़ियों के बुरादे से,
गुलकंद मैं बनाऊँगा.
टूटे दर्पणों से ,
बिखरे हुए सपनों से,
एक नक्काशी मैं सजाऊँगा.
चुभते काँटो से,
नुकीले खांकों से,
एक ताज मैं बनाऊँगा.
रास्ते पर खुद-के,
गुलकंद बिछाऊँगा.
संघर्षों की मेज़ पर,
नक्काशी सजाऊँगा.
शीर्ष पर सजीला ताज होगा,
हाथो में जिन्दगी का साज़ होगा.
दर्द की खातिर जो बीता,
वो बीता हुआ कल नहीं,
हर पल में निखरता,
वो मेरा आज होगा...
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