ज़मीं का ओहदा
मैं आसमाँ को देखता रहा,
उस रहबर से कहता रहा,
क्यों-कर मैं ज़मीन पर रहता हूँ।
मिट्टी में सना,
धूल से गंदा,
क्यों यहाँ पड़ा रहता हूँ।
लोगों को तूने आसमाँ दिए,
चमचमाते जहान दिए,
मुझे क्यों ये ज़मीन,
और धूल-गुबार दिए।
रहबर का जवाब था,
क्यों ज़मीन को गाली देता है,
एक गलतफहमी लेता है।
ज़मीन में ही सोना है,
हीरा है, पन्ना है,
और कुछ न इससे खोना है।
खोद तू ज़मीन,
कर दुरुस्त ईमान,
मेहनत की बूँदें,
इस जमीं से छुआ।
क्या हुआ गर तेरे पास,
आसमाँ नहीं,
चमचमाता,
नीरस-सा जहान नहीं।
तेरे पास ज़मीन है,
ये सारी ज़मीन तेरी है।
आसमाँ तो धुँआ-धुँआ ,
ज़मीन ही तो ठहरी है।
उठ तो सही,
मेहनत का।
अब ज़रा न,
आलस कर।
इस जमीं से ही तुझे,
सोने-हीरे-रत्न मिलेंगे।
फिर न कभी आसमाँ देखा,
न मैंने रहबर से कुछ कहा।
न ही देखा मैंने,
चमचमाता जहान।
कुदाल से बस खोदा,
देखा ज़मीं का ओहदा,
और खोदकर ही पाए,
ज़मीं के हीरे-जवाहरात।...
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