Saturday 29 March 2014

Prabhaari Saahab Kii Prem Katha

                                            व्यंग्य-कथा

                                             प्रभारी साहब की प्रेम कथा


          जी आज हमारे घर पर आने वाले साप्ताहिक अखबार में उस कंकालनुमा सहपाठी फरहान कुरैशी के युवा मीडिया प्रभारी बन जाने की ख़बर पढ़कर बड़ी ईष्र्या और आश्चर्य हुआ।हमें वो पुराने दिन याद आने लगे।
                   उस दिन का दिन बरसात के मौसम की अनचाही उमस से बड़ी बुरी तरह तप रहा था।हम जब हिन्दी विषय का पीरेड ख़त्म होने के बाद लंच में कक्षाओं से बाहर निकले तो जैसे जान में जान आ पाई।हमें तो ऐसा लग रहा था, जैसे उस भवन से जल्दी से जल्दी बाहर निकलकर पेड़ों की ठण्डी छांह में पनाह ले लें।हम गर्मी से परेशानहाल लन्च के समय कक्षाओं से ऐसे निकल रहे थे, जैसे कुत्ते चोर को देखकर भागे जा रहे हो।
                   बड़ी अजीब बात थी।हमारा विद्यालय शहर का इतना प्रतिष्ठित विद्यालय था और कक्षाओं में पंखे नहीं थे।दरअसल कुछ सालों पहले हमारे विद्यालय के कुछ बारहवीं के विद्यार्थियों ने पंखों की पंखुड़ियों को कमल के आकार में मोड़ दिया था, जिनके इस राष्ट्र-पुष्प प्रेम की सजा हम अब तक भुगत रहे थे।जाने वाले तो चले गए और हम अब तक भुगत रहे थे। अब हालत यह थी कि कक्षा में ट्यूबलाइट तक नसीब नहीं होती थी।हमारी हालत दंगों में पुलिस द्वारा पकड़े गए सज्जनों जैसी थी।
                   कभी-कभी इस गर्मी में अपने विद्यालय के ऊपर कोफ्त निकलती थी कि जितने तो इनके पंखों का नुकसान नहीं हुआ होगा, उससे दो या तीन गुना अधिक रूपयों की तो इन्होंने बिजली बचा ली होगी और हमारी फीस सुअरों की तरह हज़म कर ली होगी।क्या करें, अब गंदगी तो हर जगह है, तो सुअर भी बेचारे कहां जाएंगे।जैसे भी हो हमें तो इस स्कूल की टायर-ट्यूबनुमा प्रतिष्ठा ही चाहिए थी।हमारे विद्यालय की प्रतिष्ठा का तो जवाब ही नहीं है।इतनी मजबूत और टिकाऊ है कि अंदर भरे खालीपन का तो पता ही नहीं चलता।
                   भौतिकी और रसायन के प्रयोग ठीक से कराए नहीं जाते।कम्प्यूटर के टीचर्स हर महीने बदलते है और दोस्तों-यारों की मेहफिलों के बीच कहीं-कहीं सलीम और अनारकली भी नज़र  आ ही जाते है, जिनके बीच बादशाह अकबर हर रोज़ मुस्कराते हुए पधारते है और मुस्कराते हुए निकल जाते है। जी हां बादशाह अकबर, हमारे ‘ज़ीन-ए-इलाही’, आदरणीय प्रधानाध्यापक जी।सिर के बाल झड़ गए, भौंहे तक सफेद हो गई है, उसके बाद भी बालों में डाई लगाकर विद्यालय का भ्रमण करने ऐसे आते है, जैसे सचमुच बादशाह अकबर पधार रहे हो।बादशाह अकबर भी कुछ देर में निकल ही जाते है, बस कक्षाओं में उनके आने से थोड़ी सख़्ती का भौण्डा प्रदर्शन किया जाता है, जिससे वे इस झूठे भ्रम में रह सकें कि पूरा विद्यालय उनके अनुशासन में है।थोड़ी देर में आखिर सब सामान्य हो ही जाता है।
                   विद्यार्थियों के लिए प्रधानाध्यापक भी बस एक टाई पहने ब्लैक एण्ड व्हाईट ट्रेफिक इन्स्पेक्टर की तरह है, जो  हमेशा अस्त-व्यस्त रहने वाले कक्षाओं के ट्रेफिक को कुछ समय के लिए व्यवस्थित करके चला जाता है। यह इस मामले में ज़रा प्रतिष्ठित किस्म का ट्रेफिक इन्स्पेक्टर है।खैर लन्च में किसी ट्रेफिक इंस्पेक्टर या हवलदार(उप प्राचार्य या अन्य कोई टीचर) के आने की आशंका नहीं थी।वे दानों सलीम और अनारकली नुमा शख़्स कक्षा के बाहर ही बरामदेनुमा खुले हुए अहाते की मुँडेर के पास खड़े थे।
                   दुबला-पतला, कंकालनुमा शरीर।चेहरा एकदम पपड़ीनुमा-सा और कुछ खोपड़ीनुमा-सा।शायद जीव-विज्ञान वाले चाहते तो उसे अपने साथ ले जाकर कंकाल का अध्ययन कर सकते थे।बस एक चीज़ थी, जो उसकी थोड़ी ठीक थी, वह था उसका लम्बा कद।यही था हमारी कक्षा का एक सलीम ‘फरहान कुरैशी’।ग्यारहवीं में विज्ञान संकाय में प्रवेश लिया था उसने।दसवीं में न अच्छे नम्बर आए थे और दिमाग की हालत भी कुछ-कुछ शरीर जैसी ही थी।
                   दूसरी शख़्स थी निशा चैहान।हमारी कक्षा की एक अनारकली।शरीर से फरहान के पूरे एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार गुना थी वो।शरीर में अनावश्यक चर्बी थी और भारी-भरकम शरीर वाली थी।हालाकि वो पढ़ने में फरहान से काफी ठीक थी और समझदार भी थी। यूँ  कह सकते है कि दिमाग और समझदारी में भी वो शायद फरहान की चार गुना ही थी।
                   खैर यह अच्छी बात है कि हमारे मुगल दरबार में अनारकली के बादशाह अकबर के सामने नाचने की प्रथा नहीं है, अन्यथा हमारे मुगलाई महल पर कयामत आ जाती और वह ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाता।दूसरी बात यह भी अच्छी है कि हमारे सलीम और अनारकली प्रेम-पंछियों की तरह आसमान में उड़ने की तमन्ना नहीं रखते, वरना ख़्वामोख़्वाह सलीम और अनारकली की महत्वाकांक्षाओं को ठेस पहुंचती, क्योंकि सलीम साहब उड़ते, तो उड़ते ही चले जाते।लेकिन उनकी अनारकली ज्यादा दूर तक नहीं उड़ पातीं।
                   वो अक्सर लंच के समय वहाँ अकेले खड़े रहते थे।और सब जानते थे कि वे दोनों क्या बातें करते होंगे।हालाकि वे हमेशा नाटक करते थे कि उनके रिश्ते के बारे में वे खुलकर बातें नहीं करते है, लेकिन सारी कक्षा जानती थी कि उनके बीच क्या चल रहा था।शायद जो नहीं चल रहा था, वो भी जानती थी।
                   फरहान अक्सर रोज़ हमसे कहता था कि आज निशा के साथ बात करके वो उसके और निशा के रिश्ते के बारे में आखिरी फैसला करेगा और रोज़ ही उनका ‘आखिरी फैसला’ नहीं हो पाता था।यह कहते हुए उसे लगभग दो महीने बीत चुके थे और सितम्बर के माह में भयंकर गर्मी पड़ने लगी थी।
                   हमें न फरहान से मतलब था, न निशा से।हमें तो मतलब था बढ़ चुकी अथाह गर्मी और सिर पर त्रैमासिक परीक्षा के बोझ का।लेकिन फिर भी रह-रहकर फरहान की बोझिल बातें हमें कुछ हद तक उन दोनों के रिश्ते के बारे में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न कर रही थी।रोज़ फरहान और निशा का लंच के समय साथ खड़े होकर बात करना, फरहान का रोज़ कहना कि आज आखिरी फैसला है, फरहान का हमें उसका रूमाल दिखाना, जो उसे निशा ने दिया था, जिस पर शायद एक दिल के आकार की आकृति में फरहान और निशा का नाम लिखा था। और फरहान का दिनभर कक्षा में निशा को दिखाने के लिए बनावटी रोब जमाते रहना, जिसे आम भाषा में कलाबाजी या हवाबाजी कहा जाता है, हमारे लिए बड़ा ही मनोरंजक और अनोखा था। जिसे हम किसी फालतू टीवी सीरियल की तरह देखते थे और अपनी पढ़ाई भी करते जाते थे।
                   इधर हम त्रैमासिक परीक्षा की तैयारी में किताबों में धंसे जा रहे थे और उधर फरहान यह कहता घूम रहा था कि निशा स्कूल नहीं आ रही है और उसका काॅल भी मोबाइल पर नहीं उठा रही है।उसके घर के सामने से फरहान अपनी मोटर-साईकिल पर से गुजरा भी, लेकिन उसकी झलक भी उसे नसीब नहीं हो पाई।
                   उसकी इन फालतू बातों पर कोई उसके पीठ पीछे हंसता, कोई उसके सामने ही हंसता, तो कोई बनावटी सहानुभूति प्रकट करता।लेकिन मेरे एक मित्र ने उससे सच्चाई कह दी- ‘‘फरहान! तू सचमुच में बेवकूफ है।वो लड़की तुझसे कोई प्यार-व्यार नहीं करती है। सिर्फ टाईमपास कर रही है और तुझे उलझा रही है।’’ उन महाशय ने फरहान के मुँह पर ही कहा- ‘‘वैसे भी तुझमें ऐसी कमी क्या है, जो वह तुझसे प्यार करने के लिए ‘हां’ नहीं कह रही है।’’
                   मेरे उस दोस्त की बात पर मैं और वह मेरा दोस्त खूब हंसे थे।फरहान ने फिर भी भावुकता से कहा था- ‘‘प्यार तो मैं उससे दीवानों की तरह करता हूँ।’’
                   ‘‘तो जा मर।’’ इतना कहकर मेरा वो दोस्त भी चुप हो अपने काम में लग गया।क्योंकि वो समझ गया था कि फरहान को कुछ समझाने का कोइ्र फायदा नहीं है।
                   यहां निशा मोबाइल नहीं उठा रही थी और उधर गणित का पर्चा बहुत कठिन बनाया गया था।लेकिन फरहान से जब भी पढ़ाई का पूछा गया तो उसने कहा- ‘‘मैं तो तीन-तीन ट्यूशन जाता हूँ।पढ़ाई का तो कोई टेंशन ही नहीं है।’’
                   दिन में स्कूल में छह घण्टे, ट्यूशनों पर तीन घण्टे और बाकी समय कलाबाजी करने के बाद भी फरहान महाशय के लिए पढ़ाई बिल्कुल आसान थी।हमने मन ही मन कहा- ‘ठीक है, भैया।हमें क्या लेना, तुझसे।’
                   गणित का पर्चा प्रलय के समान था और हम पर कड़क बिजली कड़काकर गुजरा।जैसे-तैसे हम तो पास थे, लेकिन इस प्रलय में वह कंकाल कहीं दब गया था।
                   ‘‘मेरे साथ राजनीति खेली जा रही है, टीचर्स मुझे शायद जानबूझकर फेल कर रहे है, वैसे भी इतना कठिन पेपर भी कोई बनाता है, क्या?’’ फरहान महाशय अपने अंक देखकर कह रहे थे, वे तीन विषयों में निपट गए थे, जिनकी वे कोचिंग जाया करते थे।लेकिन फिर भी उन्हें पढ़ाई की ज्यादा चिन्ता नहीं थी।उन्हें चिन्ता इस बात की थी कि उन्होंने निशा के फोन न उठाने पर उसे स्कूल वापस आने पर कुछ अपशब्द कह दिया था, जिस वजह से वे उनसे बात नहीं कर रही थी। खैर परीक्षा के नाटक के मंचित हो जाने के बाद उनका और निशा का वही ‘आखिरी फैसले’ नुमा वार्तालाप फिर शुरू हो गया था।
                   इस बीच फरहान महाशय की तथाकथित कलाबाजी भी निरन्तर जारी थी।उन्होंने ‘कक्षा प्रतिनिधि’ का बैच लगा लिया था और स्कूल की ‘विज्ञान प्रदर्शनी’ में सारे पीरेड छोड़कर अपने महान विज्ञान प्रदर्शन को, अपनी कल्पना को साकार करने में ज़ोरो-शोरो से लग गए थे, जिसमें उनका एक चमचानुमा सुस्त-सा, परंतु कद-काठी से अच्छा युवक ‘विमल’ भी साथ था।सारा काम विज्ञान प्रदर्शन के ‘प्रदर्शनी प्रयोग’ अर्थात प्रोजेक्ट का उनके उन्हीं मित्र ‘विमल’ ने संभाल रखा था और फरहान ने केवल कलाबाजी में अपने कदम आगे बढ़ाये।खैर विज्ञान प्रदर्शनी के बाद फरहान का कुछ लड़कियों से किसी कारणवश कलाबाजी करते हुए झगड़ा हो गया था और उन लड़कियों ने उसे घेर भी लिया था और कुछ अपशब्द भी कह दिये थे।लेकिन फरहान महाशय बड़ी मुश्किल से बचते-बचाते उनके घेरे से निकल आए और हमें कह दिया - ‘‘उन्हें तो मैंने लड़कियां समझकर कुछ कहा नहीं, वरना मैं उनका बहुत बुरा हाल करता।’’ खैर हम केवल उसके इस मासूम विचार पर हंसे और केवल हंसे, क्योंकि हम और कुछ कर भी नहीं सकते थे।वैसे भी हम हकीकत जानते थे।
                   विज्ञान-प्रदर्शनी के कुछ समय बाद फरहान ने हमें बताया कि निशा उसका काॅल इसलिए नहीं उठा रही थी क्योंकि वह पढ़ाई में लगी हुई थी।उसकी इस बात पर हम फिर हंसे।निशा की समझदारी पर शक होने लगा था, लेकिन वो तो अब भी बहुत समझदार थी, तभी तो वह त्रैमासिक में उत्तीर्ण हो गई थी।
                   एक दिन गणित के पीरेड में फरहान महाशय उनकी काॅपी के पीछे कुछ दिखा रहे थे।कुछ फालतू-सी शायरियां और, और भी फालतू चीज़ें, जो शायद निशा ने ही उसे लिखकर दी थी।वो दिखा रहा था, और हम देख रहे थे, सो हमें गणित के शिक्षक (जो बहुत सख़्त थे) ने देख लिया और इन सब में बलि फरहान की उस काॅपी की चढ़ गई, जिसमें रसायन के नाॅट्स लिखे थे।वो काॅपी फरहान की खुद की भी नहीं थी, वह निशा की थी।गणित के सर काॅपी ले गए थे और लौटा नहीं रहे थे।बड़ी मुश्किल से निशा ने खुद जाकर अपनी काॅपी वापस ली क्योंकि फरहान तो केवल अकड़ दिखाकर उनसे काॅपी वापस लेना चाहते थे।इस पूरे प्रकरण पर हम फिर हंसे और इस टीवी सीरियल के एपीसोड के बीच ही मध्यान्तर नुमा अर्द्धवार्षिक परीक्षाएं समीप आ गई।हम पुनः किताबों में धंस गए और फरहान को इस बार भी परीक्षा की चिन्ता नहीं थी, क्योंकि वे अभी भी तीन-तीन कोचिंग जा रहे थे।
                   इस बार भी निशा ने फरहान से दूरी बनाकर पढ़ाई की।एक बार फिर गणित का पर्चा गरजते बादल की तरह बरसा, लेकिन हम फिर निकल आए और वह हड्डियों का ढांचेनुमा युवक फिर बाढ़ में बह गया।
                   परीक्षा के परिणामों के आने पर फरहान का कहना था- ‘‘अरे!पास तो मैं आखिरी में हो ही जाऊंगा। इतनी राजनीति जमी है मेरी कि कोई मुझे फेल नहीं कर सकता।’’ फरहान ऐसे कह रहे थे, जैसे कोई नेता जी चुनाव हारने के बाद अपने भाषण में कहते है।
                   हम फिर पीठ पीछे हंसे और कहा- ‘‘ठीक है।’’
                   लेकिन फरहान अब भी बेफिक्र था।जबकि त्रैमासिक और अद्धवार्षिक परीक्षाओं के अंक वार्षिक परीक्षा में जुड़कर अन्तिम परिणाम आने वाला था।इस हिसाब से त्रैमासिक और अर्द्धवार्षिक में उत्तीर्ण होना जरूरी था।
                   खैर इस बार फरहान महाशय ने तनाव लिया और तकलीफ यह कर ली कि वे उन्हीं गणित के टीचर के पास कोचिंग जाने लगे, जो परीक्षा का पेपर बनाकर काॅपी जांचने वाले थे, व जो हमें कक्षा में भी पढ़ाते थे।एक बार फिर फरहान मियां चिन्तामुक्त थे और कलाबाजी में अग्रसर थे।उनके ‘आखिरी फैसले’ की तारीख अभी भी तय नहीं थी।
                   इस बीच मेरी उनसे झड़प हो गई थी।उन दिनों निशा फिर फरहान से बातें नहीं कर रही थी। शायद वह अब फरहान से रिश्ता तोड़ना चाहती थी, लेकिन फरहान उसे बार-बार मोबाइल पर काॅल करके तंग कर रहा था।उस दिन निशा स्कूल नहीं आई थी और फरहान मियां उन्हें कक्षा में से ही छुपकर अपने (विद्यालय में अवैध) मोबाइल से काॅल लगा रहे थे, उनकी कुछ बातें मोबाइल पर कक्षा में ही शुरू हो चुकी थी।
                   फरहान मियां छुपने के लिये मेरी बैन्च पर आ गये, जो कक्षा में बहुत कोने में थी।मैं आज अकेला वहां बैठा था।फरहान जी बोले- ‘‘हट जा तू यहां से। जा आगे बैठ जा। आज हमारी आखिरी बात होगी।’’
                   ‘‘अरे!तो बैठ जा मेरे पास, बहुत जगह खाली है।’’ मैंने हास्यास्पद अन्दाज़ में कहा।
                   ‘‘क्यों दिमाग खराब कर रहा है?वैसे ही मुझे बहुत टेन्शन है।’’
                   मैं उसकी इस बात पर हंसा और बिना ज्यादा बहसबाजी किए, मेरे उसी मित्र के साथ जाकर बैठ गया, जो अक्सर फरहान को उसके मुँह पर उसके फालतू प्रेम-प्रसंग के बारे में सच्चाई कह देता था।मेरे उस मित्र ने पीछे मुड़कर फरहान को देखकर कहा- ‘‘फरहान!तू तो एक काम कर, पीछे की दीवार में गड्ढा खोदकर उसी में बैठा कर।’’
                   उन मित्र की इस बात में मेरे प्रति सहानुभूति थी।और इस सहानुभूति ने मुझे एक बार फिर फरहान के ऊपर खुलकर हंसने का मौका दिया।खैर हमारे लिए दिन एक बार फिर परीक्षा के तनाव में आ गए थे और फरहान की अपनी अलग राम-कहानी चल रही थी कि निशा के उससे पुनः दूरियां बना लेने पर उसने उसे अपना प्यार दिखाने के लिए अपने हाथ पर रेज़र से कुरेदकर निशा का नाम लिख लिया था।
                   खैर अब मामला गम्भीर न होकर हमारे लिए और भी ज्यादा हास्यपूर्ण और फालतू बन गया था और हम अब फरहान पर उसके सामने ही खुलकर हंसने लगे थे।एक दिन किसी पीरेड में, किसी विषय के टीचर के अनुपस्थित होने पर एक नई टीचर जी आई, जिनकी नज़र फरहान के घाव पर गई और वे सबकुछ समझ गई और धीमे से फरहान से बोली- ‘‘मैं तो किसी के लिए अपने खून की एक बूँद भी न गिराऊं।अपनी ज़रा-सी उंगली भी न काटूँ।’’
                   यह बात मेरे उसी परम मित्र ने फिर सुन ली जो फरहान के फालतू-से प्रेम-प्रसंग पर खुलकर हंसी निकालता था और उसे समझाता भी था।वह बोला- ‘‘मैडम जी!मैं तो किसी के लिए अपना छोटा-सा एक नाखून भी न काटूँ।’’ इस बात पर पूरी क्लास सहित वो टीचर जी भी हंस पड़ी, जो पहले फरहान के घाव को देखकर थोड़ी गम्भीर हो गई थी।
                   अब फरहान का वह घाव भी बस केवल हंसी का पात्र बनकर रह गया था और कोई भी उस पर ध्यान नहीं दे रहा था, शायद इसी वजह से फरहान थोड़ा परेशान दिखने लगा था।फरहान के तथाकथित घायल हुए प्रेम का (जो वह प्रदर्शित करना चाहता था) जबर्दस्त मखौल बन पड़ा था।
                   न तो निशा अब फरहान पर ध्यान दे रही थी, न तो कक्षा के बच्चे उसे कोई ऐतिहासिक प्रेमी मानने को तैयार थे और ऊपर से वार्षिक परीक्षा में आठ ही दिन बाकी थे।कलाबाजी करते हुए पूरा साल बीत चुका था और अब फरहान शायद सचमुच में परेशान दिखने लगा था।
                   परीक्षाएं सम्पन्न हुई और होना क्या था, दुबले पतले कंकालनुमा फरहान साहब परीक्षा में निपट गए और उनकी भारी-भरकम बेगम साहिबा ‘निशा’ जी परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होकर अगली कक्षा में निकल गई।मजबूरन स्कूल से उन कंकाल साहब को निकलना पड़ा।हालाकि अच्छी बात यह थी कि फरहान साहब की ‘राजनीति जमी है’ वाली बात सही निकली कि स्कूल वाले उन्हें उत्तीर्ण तो कर ही देंगे।वाकई में फरहान साहब को उत्तीर्ण का सर्टिफिकेट दिया गया।लेकिन उन्हें इसके लिए स्कूल से जाना पड़ा।फरहान जैसे कलाबाजी में इतने योग्य, कर्मठ, लगनशील विद्यार्थी को भी हमारे प्रतिष्ठित विद्यालय ने उत्तीर्ण का सर्टिफिकेट देकर ससम्मान और सहर्ष विदाई दी थी।
                   लेकिन कलाबाजी भी उस ब्रह्माण की तरह है, जो कभी खत्म नहीं हो सकता।दूसरी स्कूल में जाकर भी उनकी ‘आखिरी फैसले’ के लिए कलाबाजी जारी है।हालाकि अब उनका खर्चा ज्यादा होता है, क्योंकि अब वे मोटर-साईकिल पर बैठकर निशा के घर के आगे कलाबाजी करते है क्योंकि स्कूल में तो अब मिलना हो नहीं पा रहा है।खैर उनका चमचानुमा मित्र ‘विमल’ अभी भी फरहान का साथ दे रहा है और अक्सर फरहान के द्वारा भेजी गई कोई गिफ्ट, चाॅकलेट या चिट्ठी निषा केे पास पहुंचाता रहता है। एक तरीके से वो उन दोनों के बीच जंगली सुस्त-से कबूतर का कार्य कर रहा है, सलीम-अनारकली के कबूतर का।‘निशा’ जी अभी भी फरहान साहब को ‘आखिरी फैसले’ की तारीख नहीं दे रही है और बीच-बीच में उनका मोबाइल पर काॅल उठाना बन्द कर देती है।
                   फरहान के हाथ का घाव अब भर चुका है और सुनने में आ रहा है कि उन्होंने दूसरी स्कूल में ‘अन्जू’ नाम की किसी लड़की पर हवाबाजी व कलाबाजी जोरो-शोरो से गाजे-बाजे के साथ शुरू कर दी है।एक दिन फरहान जी हमें मिले तो मैंने इस बात की पुष्टि के लिए ‘अन्जू’ के बारे में बनावटी गम्भीरता से पूछा- ‘‘फरहान यार!लोग अन्जू नाम की लड़की से तेरे चक्कर के बारे में बहुत बातें कर रहे है?’’
                   फरहान जी मुस्कराए और बोले- ‘‘अरे!नहीं यार! मैं तो सच्चा प्यार केवल निशा से ही करता हूँ और करता रहूँगा।’’
                   मैंने सहमति में अपनी हंसी को दबाते हुए गर्दन हिलाई और बनावटी सहानुभूति से बोला- ‘‘वैसे तू स्कूल से निकाल दिया गया, यह अच्छा नहीं हुआ।’’
                   फरहान जी गम्भीर मुद्रा में आकर बोले- ‘‘अरे!अब तुझे क्या बताऊं...। चैहान सर जो है न, वे निशा के रिश्तेदार है।उन्हें मेरे और निशा के चक्कर के बारे में पता चल गया था।इसलिए उन्होंने राजनीति खेलकर, मुझे स्कूल से निकलवाया है।वरना मैं तो पास होता ही।और वो गणित के सर ने भी कोचिंग जाने के बाद भी कोई परीक्षा का पेपर-वेपर नहीं दिया।’’
                   मैं फिर हंसा और फरहान से विदा लेकर चल दिया।सोचने लगा कि ऐसा भी होता है कहीं?सोचता हूँ कि कितनी सच्चाई थी उस फरहान की बातों में।खैर मुझे क्या मतलब, जो मैं उसके बारे में सोचूं।लेकिन फिर भी, कुछ तो सीख मिलती ही है कि हमें जिन्दगी में किस-किस तरह की बेवकूफियां नहीं करना चाहिए।किसी की मूर्खता भी उपयोगी है, दूसरों को सिखाने के लिए।
                   बहरहाल फरहान के चाचा जी शहर के अच्छे राजनीतिज्ञ व्यक्ति है।इसलिए कंकालनुमा फरहान साहब शहर के युवा मीडिया प्रभारी हो गए है।वैसे भी वो कलाबाजी के लिए फालतू घूमते रहते थे। अब घूमते हुए कुछ काम कर लिया करेंगे।
                   फरहान साहब ने अब तक कलम पकड़ना भी नहीं सीखी है और वे मीडिया प्रभारी है।लेकिन क्या करें, भ्रष्टाचार तो हर जगह है।यहां हमें कलम घिसते हुए सालों बीत गए और किसी ने पानी तक का नहीं पूछा और उधर कलाबाज कंकाल मीडिया प्रभारी है।
                   शरीर की कंकालियत तो ठीक है, लेकिन प्रतिभा से कंकाल मीडिया प्रभारियों के कारण ही आज हमारी भ्रष्टाचार से ग्रसित हो चुकी व्यवस्थायें भी कंकाल ही बनी हुई है।
                   खैर यहां हमारा दुखड़ा कौन सुनेगा। हमारे चाचा जी राजनीतिज्ञ थोड़े न है।हमारे पास तो बस प्रतिभा है।उसके अलावा कलाबाजी, हवाबाजी और मोटर-साईकिल है ही कहां।
                   वैसे आज भी फरहान साहब का ‘आखिरी फैसला’ टला हुआ है और हमारी प्रतिभा भी इस भ्रष्ट समाज में नैतिकता की कमतरी और भ्रष्ट राजनीति के फूहड़ वातावरण की अदालत में ‘आखिरी फैसले’ पर ही रूकी हुई है।
                   आश्चर्य है, हमने खूब अच्छा पढ़ा, खूब अच्छा लिखा और हम भी ‘आखिरी फैसले’ के इन्तजार में है। और वे कलाबाज कंकाल भी कलाबाजी करने के बाद ‘आखिरी फैसले’ के इन्तजार में है।खैर वो मीडिया प्रभारी साहब है। उन्हें हम ज्यादा कुछ नहीं कह सकते, क्या पता हम प्रतिभा वालों को वे कब धर दबोचे।
                   प्यार तो हमने भी किया, साहित्य से, समाज की भलाई से और अपनी लेखनी से।अपनी कलम की नोंक से अपने समाज के सजग घावों को कुरेदा।लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए हाथों को रेज़र से कुरेदने वालों के आगे हमारी महत्ता कहां?
                   हमारी भी अपनी लेखनी से किए गए प्रेम की कथा है।लेकिन उसे कौन सुनेगा व सलाम देगा।हम तो छोटे-मोटे कलम-घिसैया जो ठहरे।वे तो भई!युवा मीडिया प्रभारी है, उनकी प्रेम-कथा को तो सलाम ठोंकना ही पड़ेगा।
                   तो दर्जनभर भ्रष्ट नेताओं सहित हमारी व हमारी पराजित प्रतिभा के सम्पूर्ण समाज की ओर से युवा मीडिया प्रभारी साहब को उनके सफल भविष्य के लिए मंगलकामनाओं सहित ढेरों बधाईयां।...


                                                  -अंकुर  नाविक,  मो. नं.-8602275446, 7869279990
                                                    ई-6, सांई विहार काॅलोनी,      
                                                   किशनगन्ज, महू ,मध्यप्रदेश।    
                                                    पि. को.-453441
                                         
                      

Friday 28 March 2014

Kahaani- Dahej Aajkal

                कहानी

              दहेज आजकल

     आसमान की गुलाबी चमक में सार्थक का उलझे हुए भाव वाला गोरा चेहरा बड़ा अजीब-सा दिख रहा था।वह सुबह-सुबह उठकर बड़े परेशानहाल होकर उसके घर के बरामदे में बड़ी तेजी से सांस लेते हुए टहल रहा था।हालाकि सूरज के उगने का संदेश देती गुलाबी आसमानी चमक थोड़ी तेज हो गई थी, लेकिन फिर भी वह पूरी तरह सुबह नहीं कही जा सकती थी ,क्योंकि हर तरफ अभी भी सन्नाटा पसरा पड़ा था और लोग अभी भी नीन्द में गुम थे।
            सार्थक का किशोर चेहरा अब जवान युवक की तरह उभरने लगा था।उसके काले बालों का लहराना अब उसके यौवन की चमक को प्रदर्शित करने लगा था।हालाकि वह कद में पांच फुट डेढ़ इन्च ही था ,लेकिन चेहरे पर बढ़ चुकी दाढ़ी उसकी उम्र को बखूबी दिखाती थी। सार्थक अब अट्ठारह साल का हो चुका था।उसकी बारहवीं की परीक्षाएं खत्म हो चुकी थी और अब उसकी बारी थी अपने सपनों को पूरा करने के पहले कदम को बढ़ाने की।
            सार्थक एक आईआईटीअन (उच्च स्तरीय इन्जीनियर) बनना चाहता था।आईआईटी-जेईई की प्रवेश परीक्षा की कठिनता को वह जानता था।वह इस प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए शहर के टॉप कोचिंग क्लास इन्सटीट्यूट को जॉइन करना चाहता था।वह आज सुबह ही जाकर इस बारे में उसके माता-पिता से बात करना चाहता था।
            पिछले दिन शाम तक तो सब ठीक था, लेकिन उसे पिछले दिन ही शाम की चाय के बाद पता चला था कि उसकी बड़ी बहन की शादी की तारीख पक्की हो गई थी।उसकी बहन की शादी की तारीख अगले महीने की ही थी।
            अब सार्थक के लिए उसे अपने आइ्र्रआईटीअन बनने के सपने को साकार करने के लिए आई-आई-टी प्रवेश परीक्षा की कोचिंग के बारे में अपने माता-पिता से बातें करना खुद को शर्मिन्दा करने जैसा था।क्योंकि सार्थक जानता था कि उसके घर में केवल उसके पिताजी ही कमाते थे,जो एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थे।बड़ी मुश्किल से उन्होंने कुछ पैसा इकट्ठा किया होगा और अब वो यकीनन उस पैसे को सार्थक की बड़ी बहन की शादी में लगाना चाहते होंगे ,ऐसे में सार्थक उनसे कोचिंग इन्स्टीट्यूट जाॅइन करने के लिए पैसे कैसे मांग सकता था।
            सार्थक एक बहुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी था और वह अपने घर की आर्थिक स्थिति के लिए भी सजग था, वह जानता था कि उसके पिताजी की कमाई के हिसाब से आईआईटी की कोचिंग की फीस बहुत ज्यादा होगी ,लेकिन फिर भी पिताजी किसी तरह बस कोचिंग के लिए पैसा जुटा लेते है, तो फिर आगे आई-आई-टी कोलेज में सिलेक्शन के बाद उसे वैसे ही एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) मिल जाने वाला था, जो उसकी नौकरी लगने के बाद ही उसकी (सार्थक की) ही तन्ख्वाह में से चुकने वाला था।
            सार्थक ने कुछ दिनों से पैसे से लेकर आई-आई-टी की पढ़ाई तक सारी योजनाएं बना ली थी।उसे बस उसके पिताजी से एक बार ही थोड़ी बड़ी आर्थिक मदद चाहिए थी।लेकिन अब अचानक उसके पिताजी ने बहन की शादी का जिम्मा उठा लिया था, तो सार्थक को अपने आप में ही यह कहना कि-‘मुझे कोचिंग इन्स्टीट्यूट के लिए पैसे चाहिए।’ बहुत स्वार्थपूर्ण लग रहा था।
            सार्थक ने सब सोचा था, लेकिन कभी बहन की शादी के बारे में तो सोचा ही नहीं था।पिछले साल ही तो उसकी बहन सिमरन की बी. कॉम पूरा कर लेने के बाद सगाई हुई तो जाहिर था उसकी शादी भी होना ही थी, शायद सार्थक ने अपने पिता के नजरिए से सोचने में बस यही बिंदु छोड़ दिया था।
            आसमान में सूरज अब बहुत ऊपर आ गया था।बरामदे पार सड़क पर कुछ चहलकदमी की  आवाजें भी आने लगी थी।सार्थक ने स्थिर खड़े होकर लगातार उजले होते आसमान को निहारा और फिर मन में कुछ सोचा।शायद आसमान के साथ उसके मन में भी आशा की किरण फूटने लगी थी।उसने सोचा-‘‘वैसे भी वो मेरे पिताजी है, लड़की की शादी उनके लिए जरूरी है, तो मेरी पढ़ाई के लिए भी कोई व्यवस्था जरूर की होगी ,मुझे उनसे बात तो करनी ही पड़ेगी।’’
            सार्थक कुछ देर बाद बैठक कक्ष में अपने पिताजी से बात करने के लिए पहुँच  गया था।सार्थक के पिताजी आंखों पर एक मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये अखबार पढ़ रहे थे।
            सार्थक धीमे से आकर उनके सामने वाले लकड़ी के सोफे पर बैठ गया और अपनी बात कहने के लिए हिम्मत जुटाने लगा।
            ‘‘पापा!आज आप स्कूल नहीं गए?’’ सार्थक ने बात शुरू की।
            ‘‘हां।’’ सार्थक के पिताजी ने अपने चश्मे में से न्यूज पेपर के ऊपर से सार्थक की तरफ देखते हुए कहा। ‘‘आजकल स्कूल में छुट्टी चल रही है, बस रिजल्ट बनाने के लिए थोड़ी देर स्कूल जाऊंगा।’’
            इतना कहने के बाद उन्होंने फिर न्यूज-पेपर में अपनी आंखें गढ़ा ली।अब तक सार्थक की माताजी किचन से निकलकर चाय-नाश्ता हाथ में लिए बैठक कक्ष में प्रवेश कर चुकी थी।
            सार्थक अभी कुछ कहने ही वाला था कि उसकी माताजी बोल उठी- ‘‘सुनिए जी!महीने भर बाद बेटी की शादी है।पैसे-पाई का कुछ सोचा या नहीं?’’
            अब तक सार्थक के पिताजी अपना चश्मा उतार चुके थे और पेपर भी तह होकर सोफे के एक कोने में पड़ा हुआ था।अब वे अपनी पत्नी के हाथों से चाय का प्याला ले रहे थे।
            ‘‘हां, शादी के लिए तो  एक-डेढ़ लाख रूपया जमा है।’’सार्थक के पिताजी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
            ‘‘शादी-ब्याह तो ठीक है, लेकिन बेटी को क्या खाली हाथ भेज दोगे।’’ सार्थक को चाय का कप पकड़ाने के बाद ,अब सार्थक की माताजी ने भी चाय का एक भरा प्याला उठा लिया था।
            ‘‘हां, दहेज ,गहनों के लिए भी मेरे पास तीस-चालीस हजार रूपये अपनी पाॅलिसी के हो जाएंगे।’’ सार्थक के पिताजी ने अब उत्साह और गम्भीरता के भाव में कहा। ‘‘और जो कमी होगी, उसके लिए मैं क़र्ज़  लेने को भी तैयार हूँ ।बस ये शादी हंसी-खुशी और धूमधाम से हो जाए ,मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा।दिल में ठण्डक हो जाएगी।’’
            ‘‘बेटी को कम से कम एक ,उसके कमरे के लिए कलर टी. वी. तो देना ही पड़ेगा।’’ सार्थक की मां ने अब थोड़ी भावुकता से कहा।
            ‘‘हां, कलर टीवी ,डेसिंग टेबल और एक लकड़ी के दीवान की व्यवस्था तो हो ही जाएगी।’’ सार्थक के पिताजी भी भावुकता के आवेग में थे।
            ‘‘मेरे ख्याल से एक मोटर-साईकिल की व्यवस्था भी हो जाती ,तो अच्छा रहता।’’ सार्थक की मां अब प्लेट में से पराठे का एक टुकड़ा उठाते हुए कह रही थी।
            ‘‘मोटर-साईकिल में ज़रा मुश्किल जाएगी ,लेकिन मैं कोशिश करके देखूँगा।मेरी ‘वर्मा साहब’ जो एक शोरूम के मालिक है, से अच्छी बातचीत है।’’ सार्थक के पिताजी अब सामने वाले बेडरूम के दरवाजे को निहार रहे थे, जो उनकी बेटी सिमरन का था।
            ‘‘क्या देख रहे है?’’ सार्थक की माताजी ने मुस्कराते हुए पूछा।
            ‘‘कुछ नहीं। बस देख रहा हूँ कि सिमरन बेटी कितनी निश्चिन्तता से सो रही है, क्या पता ससुराल में इतने आराम से कभी सो पाए या नहीं।’’ सार्थक के पिताजी के चेहरे पर भावुक-सी मुस्कान थी।
            ‘‘हम से जो बन पड़ा ,हम कर चुके।जिंदगी की जितनी जमा पूँजी थी।सब सिमरन को दे रहे है।आखिर सिमरन ही में तो हमारी जिन्दगी की सच्ची जमा-राशि है।’’ सार्थक की मां भी भावुकता से अब सिमरन के बैडरूम के दरवाजे को निहार रही थी।
            ‘‘बस ये सुख और आराम से जिए।उसके बाद कोई चिन्ता नहीं।’’ सार्थक के पिताजी ने मुस्कराते हुए चाय का प्याला नाश्ते की टेबल पर रख दिया।
            सार्थक को कुछ लमहों तक ऐसा महसूस होने लगा ,जैसे वह वहां हो ही नहीं।सार्थक का मन इस समय उसके माता-पिता की भावनाओं को आहत करने का नहीं था, लेकिन कुछ था उसके मन में जो उसे झंझोड़ रहा था।
            कोई उसके अंदर बैठा कह रहा था कि ये सब गलत है।लेकिन सार्थक मुँह से शब्द नहीं निकाल पा रहा था।क्या यह कहना कि उसकी स्वयं की पढ़ाई के लिए उसकी बहन की शादी में कुछ कमी कर दी जाए ,सही था?क्या उसका स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता था कि वह खुद की पढ़ाई के लिए अपनी बहन के ऐशोआराम में कमी करवा दे?
            उसके मन में सिर्फ यह जवाब मिल रहा था कि जो हो रहा है वह सही नहीं है।लेकिन जैसे सार्थक कह ही नहीं पा रहा था कि यह सब गलत है।कुछ देर के आन्तरिक द्वन्द्व के बाद सार्थक ने बोलने की कोशिश की- ‘‘पापा! मैं आपसे अपनी पढ़ाई को लेकर कुछ कहना चाहता था।’’
            ‘‘पढ़ाई के बारे में क्या कहना चाहते थे?’’ सार्थक के पिताजी ने उसे प्रश्नभरी निगाहों से घूरा।
            ‘‘जी पापा! मैं आई-आई-टी जेईई की परीक्षा देना चाहता हूँ?’’ सार्थक धीमे से झिझकते हुए बोला।
            ‘‘हां तो जरूर दो ,कब है परीक्षा?वैसे उसमें सिलेक्ट होना मुश्किल है, लेकिन नाॅलेज के लिए जरूर दो।’’ सार्थक के पिताजी ने पुनः अपना अखबार आंखों के सामने करते हुए कहा।
            ‘‘नहीं पापा, मैं आई-आई-टी जेईई की एग्जाम (परीक्षा) सीरियसली (गंभीरता से) देना चाहता हूँ ।’’ सार्थक ने नीचे देखते हुए कहा।
            ‘‘हां तो मैं कहां कह रहा हूँ कि परीक्षा मजाक में दो।’’ सार्थक के पिताजी की आवाज में हास्य का पुट था, जो सार्थक के लिए तीखे व्यंग्य जैसा था।
            ‘‘मेरा मतलब है कि मैं एक साल ड्राॅप (अंतराल) लेकर आई-आई-टी जेईई की कोचिंग जाॅइन करने के बाद इस एग्जाम को फेस (सामना) करना चाहता हूँ।’’ सार्थक ने जैसे एकदम से अपनी बात कह दी।
            ‘‘ओह!तो तुम्हें भी लग गया कोचिंग का चस्का।’’ सार्थक के पिताजी फिर मुस्कराए। ‘‘उन कोचिंगों में पढ़ाई के अलावा बाकी सबकुछ होता है।’’
            ‘‘लेकिन पापा!मैं वहां केवल पढ़ाई करने के लिए ही जाऊंगा।मैं सीरियसली एक आईआईटीअन बनना चाहता हूँ।’’ सार्थक ने बैठे-बैठे आगे की तरफ झुकते हुए कहा।
            ‘‘बेटा आईआईटी-जेईई एग्जाम के बारे में मैं भी जानता हूँ। मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि उस एग्जाम में सिलेक्ट होना कितना कठिन है।’’ सार्थक के पिताजी ने धीमे से गंभीरता से कहा।
            ‘‘पापा!मैं मेहनत करूंगा।दिन-रात एक कर दूँगा ,बस मुझे थोड़ी-सी मदद कर दीजिए ,मैं वादा करता हूँ कि आईआईटी कोचिंग का पैसा वेस्ट (व्यर्थ) नहीं जाने दूँगा।’’ सार्थक ने हल्की तेज आवाज में कहा।
            ‘‘बेटा! वो तो ठीक है, लेकिन तुम तो जानते ही हो, कि आईआईटी की कोचिंग में कितना ज्यादा रूपया लगेगा और मेरी आर्थिक स्थिति इस वक्त इतनी अच्छी भी नहीं है।ऊपर से तुम्हारी बहन की शादी भी है।’’ सार्थक के पिताजी ने अखबार को अपने पास में ही सोफे पर पटकते हुए कहा।
            ‘‘पापा! किसी तरह बस आपको तीस हजार रूपयों की ही तो व्यवस्था करनी है।उसके बाद तो मुझे वैसे ही एजुकेशन लोन मिल जाएगा ,जो मेरी नौकरी लगने के बाद मेरी ही तन्ख्वाह से कटेगा और हो सकता है आपका इन्कम सर्टिफिकेट (आय का प्रमाण-पत्र) लगाने के बाद मुझे काॅलेज फीस में बहुत सारी छूट भी मिल जाए।’’ सार्थक ने अपनी बात पर गम्भीरता से जोर दिया।  ‘‘बस पापा, ये एक बार पैसों की व्यवस्था कर दीजिए।’’
            ‘‘बेटा! मैं तो सोच रहा था कि तुमसे बी. एस. सी. कम्प्लीट (पूरी) कराके  पी. एस. सी. या यूपीएससी की परीक्षा दिलवाऊंगा। लेकिन तुम भी आईआईटी की रेस में दौड़ना चाहते हो।'' सार्थक के पिताजी भी अपना पक्ष रखने में पीछे नहीं थे।
            ‘‘पापा!मेरी रूची शुरू से ही टेक्निकल ब्रान्च में रही है।इसलिए मैं बहुत पहले से ही आईआईटीअन बनना चाहता था।’’
            ‘‘बेटा!मैं तुमसे ज्यादा बहस नहीं करना चाहता।’’ सार्थक के पिताजी का स्वर तीखा व कठोर हो गया था। ''बस इतना ध्यान रखो कि, जितनी खुद की चादर हो,उतने ही पैर पसारने चाहिए।’’
            सार्थक अब सचमुच बहस करने लगा था, शायद इसलिए वह चुप रहना चाहता था।लेकिन यह उसके जीवन का सवाल था। अगर आज वह चुप रह गया, तो एक बार फिर दहेज प्रथा की आड़ में किसी के सपने दफन हो जाने वाले थे।लेकिन सार्थक कुछ देर तक बैठा रहा और फिर जैसे उसके अंदर की ज्वाला फूट पड़ी।
            ‘‘पापा!आप कह रहे है कि जितनी हैसियत हो ,उतना ही करना चाहिए, तो क्यों मोटर-साईकिल और जाने क्या-क्या सिमरन दीदी की शादी में दे रहे है।जबकि उसके लिए भी आपको कर्जा करना पड़ रहा है।’’ सार्थक की आवाज धीमी थी लेकिन स्वर में जैसे आग थी।
            ‘‘तो क्या अपनी बहन को खाली हाथ भेज देगा। कैसा भाई है?’’ सार्थक की माताजी धीमे से, स्वाभाविकता से ही कह रही थी, जैसे उन्हें सार्थक की बात समझ ही न आई हो।
            ‘‘मम्मी! दीदी को खाली हाथ मत भेजो ,सब दो।बस एक मोटर-साईकिल रहने दो। आज हमारे पास सेकण्ड हैण्ड स्कूटर तक नहीं है और पापा कर्जा लेकर दीदी को दहेज में चालीस हजार रूपयों की मोटर-साईकिल दे रहे है। यह सचमुच हमारी हैसियत से ज्यादा है। वैसे भी दीदी के ससुराल वाले पहले से ही इतने पैसे वाले है, तो उन्हें मोटर-साईकिल न देने से क्या फर्क पड़ेगा।’’ सार्थक की आवाज में अब थोड़ी कम कठोरता थी।
            ‘‘बेटा!इज्जत भी तो कोई चीज़ है।आजकल तो मोटर-साईकिल देना तो बहुत मामूली-सी बात है।ऐसे में हम यदि उसे यह न दें, तो वह कैसा महसूस करेगी और हमारे समाज के लोग क्या कहेंगे?’’ सार्थक के पिताजी ने भी अपनी आवाज में कठोरता को कम कर दिया था।
            ‘‘आपकी इज्जत क्या सिर्फ दहेज में मोटर-साईकिल देने से ही बनेगी?जब आपका बेटा एक आईआईटी इंजीनियर बनेगा ,तब आपका सिर गर्व से ऊंचा नहीं होगा।’’ सार्थक ने अजीब ढंग से मुस्कराते हुए कहा।
            ‘‘कैसा दहेज बेटा?हम जो दे रहे है, वह अपनी खुशी से अपनी बेटी को दे रहे है।हमसे किसी ने जबर्दस्ती नहीं की है।’’ सार्थक के पिताजी भी तीखी हंसी हंसने लगे।
            ‘‘तो मत दीजिए न, अपनी खुशी से ये ताम-झाम।क्या हो जाएगा?दीदी के ससुराल वाले तो कुछ नहीं मांग रहे।’’ सार्थक की आवाज का सुर धीमा था, लेकिन आवाज का पुट आक्रोश भरा था।
            ‘‘वाह-वाह!इतने सालों से बेटी की शादी धूम-धाम से करने का ख्वाब देख रहे थे, अपना खून-पसीना एक कर रहे थे और आज ये लाटसाहब कहते है-कुछ मत दो बेटी को।’’ सार्थक के पिताजी उनकी पत्नी को देखने लगे, जो कभी सार्थक को ,तो कभी अपने पति को घूर रहीं थी।
            ‘‘पापा! मैं पहले ही कह चुका हूँ  कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ  कि दीदी को खाली हाथ भेज दो ,मैं सिर्फ मोटर-साईकिल न देकर उतने पैसे मुझे देने के लिए कह रहा हूँ  ,बस।’’ सार्थक का स्वर स्पष्ट था और उम्मीद से ज्यादा शान्त भी।
            ‘‘हे भगवान!आज की युवा पीढ़ी को जाने क्या हो गया है?जिस बहन के साथ बचपन से खेल-खाकर बड़ा हुआ ,उसकी खुशी ही नहीं देखी जा रही।’’ सार्थक के पिताजी ने पुनः उनकी पत्नी की तरफ नज़र डालते हुए कहा।
            ‘‘पापा!आप समझ नहीं पा रहे है, मुझे।मैं अपनी बहन की खुशियों की बलियां नहीं चढ़ाना चाहता।’’ सार्थक का स्वर सामान्य-सा ही था।
            ‘‘बेटा!मुझे तो आज ही पता चला कि तू कितना स्वार्थी है?’’ सार्थक के पिताजी ने हल्के रूंधे गले से और सार्थक से नजरें हटाकर जमीन की तरफ देखते हुए कहा।
            ‘‘अगर मैं स्वार्थी हूँ  ,तो आप भी कुछ कम स्वार्थी नहीं है, जो अपनी झूठी शान के लिए मेरी लाईफ (जीवन) को ,मेरे भविष्य को और मेरे टैलेन्ट (प्रतिभा) को बलि चढ़ा रहे है।’’ सार्थक ने धीमे से किन्तु दृढ़ता से कहा, उसे अपने कहे पर ज़रा भी अफसोस नहीं था।
            सार्थक के पिताजी को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वो किसी जंग में हार गए हो ,लेकिन अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते हो।
            कुछ देर खामोशी छाई रही।सार्थक अब सचमुच अपने पिताजी से बहस करते हुए अच्छा महसूस नहीं कर रहा था। उसने जल्दी से अपना नाश्ता खत्म किया।उसके बाद उसकी माताजी नाश्ते के झूठे बर्तन उठाकर किचन में चली गई।
            सार्थक दरवाजे से बाहर जाने के लिए बढ़ा। लेकिन तभी उसे उसके पिताजी की रूखी आवाज आई।
            ‘‘अगर तुम्हें कोई जरूरी काम न हो ,तो बैंक से कुछ रूपया निकाल लाओ।’’
            सार्थक के पिताजी के हाथों में चेकबुक थी। सार्थक ने बिना कुछ कहे उनके हाथों से चेकबुक ले ली और घर से बाहर आ गया। वह बैंक की तरफ ले जाने वाली सड़क पर चहल-पहल से भरे माहौल में गुमसुम-सा चला जा रहा था।
            समाज के लोग पढ़-लिख गये है, आज कोई दहेज नहीं मांगता। लेकिन क्या फिर भी दहेज की आंच में कोई नहीं तपता? यह सवाल शायद कितने ही सार्थकों के दिल में तप रहा है।पहले दहेज अत्याचारों के रूप में लिया जाता था, जबर्दस्ती मांग करके और आज लोगों की पढ़ी-लिखी बुद्धि की संकीर्ण सोच और झूठे सम्मानों की आड़ में दिया जाता है।
            घर-बार ,पढ़ाई आदि की चादर सिकोड़कर झूठे सम्मान के रबर के तम्बू को जबर्दस्ती खींचा जाता है।उस तम्बू में दहेज ठूसा जाता है।आज लोग पढ़-लिख गए, समाज की सोच बदल गई, लेकिन कुरीतियां आज भी वहीं की वहीं है, बस उनके अत्याचारों के शिकार बदल गए है।पहले बूढ़े मां-बाप पर दहेज की गाज गिरा करती थी, और आज देश के करोड़ों नौजवानों ,प्रतिभावान सार्थकों पर।
           सार्थक के हाथ कांप रहे थे।उसके अंदर की ज्वाला असहनीय हो रही थी।एक तरफ उसका भविष्य था, सपने थे, सच्चाई थी और दूसरी तरफ थी उसके माता-पिता की झूठी शान और गलतफहमी कि दहेज देने में उसकी बहन की खुशी थी।सार्थक अपने मन की यथार्थवादी आग से अपने माता-पिता की भावुकता को नहीं झुलसाना चाहता था, लेकिन कुछ था उसके मन में, जो उसे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा था।
           अचानक उसने दृढ़ हाथों से चेकबुक खोली।उसमें तीन हजार की राशि भरी हुई थी, जो उसके पिताजी ने उसे बैंक से निकालकर लाने को कही थी।उसने दृढ़ हाथों से अपने पेन से चेकबुक में तीन हजार रूपये को तीस हजार रूपये कर दिया।और दृढ़ता से बैंक की तरफ बढ़ गया।
           वह अपने पिताजी की झूठी शान के लिए अपने सपनों की बलि नहीं चढ़ाना चाहता था, वह खुले आसमान में उड़ना चाहता था।वह आज ही तीस हजार रूपये निकालकर कोचिंग की फीस जमा कर देना चाहता था।उसे अब अपने मन की ,विचारों की सच्चाई के कारण कोई फिक्र नहीं थी कि उसके इस कार्य पर उसके माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होगी।उसे बस इतना ध्यान था कि वह सही था।
           परिवर्तन की शुरूआत हो चुकी थी।आसमान में युवा पीढ़ी का चमकता सूरज दिखाई देने लगा था, जो शायद सार्थक जैसे प्रतिभावान नौजवानों से सदा रोशन रहेगा।
           आसमान अब खुल चुका था और सुबह से छाई लाल बदलियां हट चुकी थी।शायद इस उजाले में घर पर बैठे सार्थक के पिताजी की आंखें चुँधियाने लगेंगी।...
    -अंकुर नाविक,
     ई-6,सांई विहार कालोनी,
      किशनगंज, महू ,म.प्र.।
     पि. को.-453441
     मो. नं.-8602275446, 7869279990
    
     

       

Tuesday 18 March 2014

Short Story- Nivesh






www.ankurnavik.in

लघुकथा
 निवेश

         मिस्टर शर्मा अपनी कार से उतरे और 1 वर्षीय पोती को गोद में लेकर भार्गव बनिए की दुकान पर किराना लेने पहुँचे। ढाई हजार का मोटा-ताजा बिल चुकाने के बाद बकाया पैसे के इंतज़ार में शर्मा साहब मुस्कराते हुए खड़े थे. इतनी देर में भार्गव बनिए का वात्सल्य अचानक जागृत हो गया और वो चॉकलेट की बरनी से एक चॉकलेट निकालकर मुस्कराते हुए शर्मा साहब की पोती को देने लगे.
           छोटी-सी बच्ची ने तुरंत चॉकलेट झपट ली.
          "अरे! भार्गव साहब! इसकी क्या ज़रूरत है.'' शर्मा जी ने मुस्कराते हुए कहा.
          ''बस हमारी बच्ची पे हमें प्यार आया, तो दे दिया। देखिये कितनी खुश है.'' भार्गव बनिया एक प्यार भरी मुस्कान दे रहा था.
          ''बेटा! अंकल जी को नमस्ते करके थैंक्यू बोलो।''शर्मा जी ने भी मुस्कराते हुए छोटी बच्ची से कहा.
          ''थंकू!'' बच्ची अस्पष्ट स्वर में अपने दोनों हाथ बेतरतीब जोड़ के कहने लगी.
            शर्मा साहब अपना खरीदा हुआ सामान और बकाया पैसे लेकर अपनी कार में बैठकर चले गए.
           तभी दुकान पर एक मजदूर अपनी 2 वर्षीय बच्ची को लेकर पहुँचा। पचास रुपयों के बिल पे पचास रूपए का नोट देने के बाद उस मजदूर की 2 वर्षीय बालिका चॉकलेट की बरनी की तरफ इशारा करके चॉकलेट माँगने लगी. वो काफी देर से उस बरनी को देखे जा रही थी. अचानक वो बच्ची ज़िद पे उतर आई और रोने लगी.
            तब उस मजदूर ने चॉकलेट की बरनी की तरफ इशारा करके भार्गव बनिए से पूछा- ''कितने की है भाऊ?''
            ''5 रूपये की एक!'' भार्गव बनिए का सपाट स्वर था.
            ''भाऊ! 5 रूपये मैं अगली बार आऊँ, तब ले लेना। अभी पैसे नहीं है.'' उस मजदूर ने विनम्र स्वर में कहा.
            ''न-भाई-न!'' भार्गव बनिए ने मुँह फेरते हुए कहा. ''हम किसी को उधार नहीं देते.''
            वो मजदूर अपना सामान लेकर अपनी ज़िद करती हुई बच्ची को डपटते हुए वहाँ से चला गया.
            भार्गव बनिए का कार से आकर ढाई हजार रुपयों का सामान खरीदने वाले शर्मा जी की पोती पे उमड़ा दुलार अचानक पचास रुपयों का सामान खरीदने वाले मजदूर की बेटी के लिए पूरी तरह काफूर हो चुका था.
             वो व्यापार में अपनी भावनाओं का निवेश भी सोच-समझकर करना अच्छी तरह से जानते है...
                                               
                                                          -अंकुर नाविक,
                                                    (www.ankurnavik.in)

"Deepika "Ek Prem Kahani" Hindi Novel by Ankur Navik & Arjun Mehar

MUST READ MORE ABOUT THIS BOOK HERE: (FIRST FEW LINES OF NOVEL & AMAZING VIDEO TRAILER)
http://www.ankurnavik.in/2013/09/deepika-ek-prem-kahani-by-ankur-navik.html

Details of Book: Deepika "Ek Prem Kahani"
Author: Ankur Navik & Arjun Mehar
Category: Love Story
ISBN-13: 978-81-921311-39
Binding: Paperback
Publisher: Rigi Publication www.rigipublication.com
Pages: 220
Language: Hindi
Price: 143 Rs.

ORDER BY SMS:

SMS "DEEPIKA" ALONG WITH YOUR NAME & ADDRESS AT 9357710014.

PAY CASH ON DELIVERY | FREE SHIPPING IN INDIA 

Wednesday 26 February 2014

Ehsaas

कहानी

एहसास


           बरसात के दिनों कि मानसूनी शाम थी. मैं पार्क में उदास बैठा था. हालाकि सिविल जज की परीक्षा मैंने अच्छे से दी थी. और सिविल जज के पद के लिए मेरा चयन होना लगभग तय था. फिर भी उदास था.

            आसमान पर बादलों की छटा होने से अँधेरा-सा लग रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे बहुत तेज़ वर्षा होने वाली है. पार्क से कुछ कदम की दूरी पर नाला ऊफान मार रहा था. ऐसे भयानक माहौल को देखकर मन में और उदासी छा जाती थी. पुरानी बातें मन में इस कदर लहरों की तरह तूफ़ान लाती थी कि मन उदास से भी ज्यादा उदास हो जाता था. सब था मेरे पास, सभी चीज़ें व्यवस्थित, फिर भी मैं उदास था. अपने परिवार वाले दुश्मन लगने लगे थे.

             आज भी वो बात ज्यादा पुरानी नहीं लगती मुझे। मैं और योजना भाभी दसवीं कक्षा में पढ़ते थे. मैं जाने क्यों उस समय योजना भाभी की तरफ आकर्षित था. जाने क्यों पर मन ही मन में मैं योजना भाभी को चाहने लगा था. पर मैंने कभी उन्हें अपने दिल की बात नहीं बताई। क्योंकि मैं जानता था कि उसका जवाब 'न' ही होगा। मैं और वह कभी दोस्त भी न बने थे. यहाँ तक कि हमारी ज्यादा कभी बातचीत भी न हुई थी. फिर भी उनके(योजना भाभी के) स्वभाव से मैं मोहित था.

              कभी उनसे अपने दिल की बात कहने को मन बनाता तो कभी जाति में ऊंचे होने की बात  सामने आती, कभी खुद की कुरूपता आढ़े आ जाती। फिर एक पल को सोचता योजना भाभी भी कोई खास खूबसूरत नहीं है. पर आखिर में यही निर्णय निकाल पाता कि मैं उनसे कुछ न बोलूं।

               समय बीतता गया. इसी कश्मकश में कि 'बोलूं या नहीं' में दो वर्ष बीत गए. फिर स्कूल के दिन ख़त्म हो गए. मेरी बात मेरे मन में ही रह गई. कॉलेज की पढ़ाई के समय सोचा कुछ अच्छी नौकरी में आ जाऊँ, फिर योजना भाभी के बारे में पता लगाऊंगा। नौकरी में आने का सपना तो पूरा हो रहा था, पर योजना भाभी को ढूँढ़ने का सपना मैं चाहकर भी पूरा न कर पाया। अचानक मेरे भैया ने लव मैरिज कर ली थी. उस दिन मुझे बड़ा धक्का-सा लगा था, मेरे भैया ने जिस दिन मुझे उनकी प्रेमिका के बारे में बताया था. मैं दिल पर हाथ रखकर रह गया था. वह जिसे अपनी प्रेमिका बता रहे थे वह योजना भाभी ही थी. मैंने दिल पर हाथ रखकर पूछा था- ''उसने(योजना भाभी ने) क्या जवाब दिया?'' 

               भैया ने बताया कि उनके प्रेमप्रसंग को एक वर्ष हो गया है. भैया ने जब मुझे उनकी प्रेमिका की तस्वीर दिखाई तो मेरा मुँह रोने की हालत में हो गया. योजना भाभी भैया के कार्यालय में ही काम करती थी. यहीं वे दोनों मिले और बात अब शादी तक पहुँच गई थी. मैं समझ गया कि मैंने बहुत देर कर दी है, भैया ने मेरे प्रेम पर रुकावट डाल दी है. मैं बड़ी कलह से दर्द को दबाए चुप था. भैया ने माँ-पापा की मर्ज़ी के खिलाफ योजना भाभी से शादी कर ली. योजना भाभी के स्वभाव से बहुत जल्द ही माँ-पापा ने प्रभावित होकर योजना भाभी को बहू के रूप में अपना लिया। पर मैं अभी तक योजना भाभी को भाभी के रूप में नहीं स्वीकार पाया था. 

               योजना भाभी ने मुझे पहली मुलाकात में ही पहचान लिया था कि वो और मैं साथ में पढ़े है. भैया को भी भाभी के मुझसे मित्रवत रहने में कोई संदेह नहीं था क्योंकि वे पहले से जानते थे कि हम पहले से एक-दूसरे को जानते है इसलिए इतने मित्रवत है. पर सच बात यही थी कि यह मित्रवत व्यवहार एकतरफा ही था. योजना भाभी ने मुझसे देवर-भाभी के समान मित्रवत बनने का रिश्ता बनाना चाहा। वह मुझमें स्कूल की सहेली को खोजती हुई-सी लगती थी. पर मैं हमेशा उनसे दूरी बनाये रहता था ताकि गलती से भी मेरे मन में कुछ गलत विचार न आ जाए. मैं इन दिनों बड़ा उदास हो गया था. क्योंकि शादी के बाद भैया अपने वैवाहिक जीवन में मग्न से हो गए थे. डिनर, सिनेमा आदि किसी भी गतिविधि की बात हो ,वे योजना भाभी को लेकर जाते थे. माँ-पापा तीर्थयात्रा पर गए हुए थे, हरिद्वार। मैं बड़ा अकेला महसूस करता था. या सच कहूँ तो मुझसे भैया और भाभी की नज़दीकियां बर्दाश्त नहीं होती थी. अभी भी भैया और योजना भाभी को बिना बताए घर से निकल आया था क्योंकि मैं सोच रहा था कि उन्हें मेरी कोई फिक्र नहीं होगी।

               अचानक मेरा ध्यान भटका। पीछे से शोर आ रहा था- ''जल्दी पार्क से निकल जाईए, नाला खतरे के निशान से ऊपर हो गया है.'' मैं शोर को सुनकर तुरंत भागा। आगे देखा नाला पुल के ऊपर से बह रहा था. पुलिस पुल खाली करवा रही थी. मैं भागा। घर पुल पार कॉलोनी में था. पुल पार कर ही रहा था कि अचानक तेज़ वर्षा शुरू हो गई. नाले का बहाव तेज़ हो गया था. मैं लगभग पूरा भीग गया था. मन में विचार आया- ''बह भी जाऊँ, तो किसे फिक्र होगी।'' थोड़ा आगे बढ़ा. अचानक पैर फिसलता, पर बच गया. पानी घुटने के थोड़े ही नीचे था. ठण्ड से पूरा शरीर कांप रहा था. मैंने डरते-कांपते पुल पार किया और उदास मन से भीगा हुआ घर की तरफ चल दिया।

                घर गया तो देखा, भाभी किचन में भैया के लिए डाईनिंग टेबल सजा रहीं थी. उस समय भाभी का ध्यान मुझ पर ज़रा भी नहीं गया था. मैं घृणित भाव से ड्रॉइंग रूम में से होता हुआ अपने बेडरूम में चला गया. अचानक पता नहीं कैसी बेहोशी किस्म की नींद लग गई. 

                अचानक मैं जागा। सिर पर बहुत ठंडक-सा अहसास हो रहा था. घड़ी में सामने मेरी नज़र गई. रात के दो बज रहे थे. मुझे ऐसा लगा जैसे बेहोशी से होश में आया हूँ. अचानक सर पे किसी के सहलाने की आहट हुई. मेरे मुँह से निकल पड़ा- ''माँ.''. क्योंकि इस प्रकार की सहलाहट माँ ही सर पर करती थी. अचानक सर पे से बर्फ  हटने का अहसास हुआ, मेरी सामने नज़र गई. भैया ने बर्फ की ठंडी पट्टी हटाई थी. मैंने सिर के ऊपर देखा। वह भाभी थी, योजना भाभी। मुस्कराते हुए मेरी तरफ देख रहीं थीं. मुझे देखकर बोलीं- ''कैसा लग रहा है, अब?''

                फिर भैया बोल उठे- ''कहाँ चले गए थे? शाम से तुमको ढूँढ रहा था. आज भाभी ने देखो खास तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद का खाना बनाया था. वह भी ठंडा हो गया. शाम से तुमको सरप्राईज़ देने की मेहनत में लगी थी, वह. क्या ज़रूरत थी बरसात में भीगने की.''

                अचानक फिर आगे की बात भाभी ने कही- ''पता है, तुम्हारा चयन सिविल जज के पद पर हो गया है. आज ही लेटर आया. इसी बात का सरप्राइज़ देने के लिए मैंने तैयारी की थी. तुम्हारे लिए शाम से डाईनिंग टेबल सजा रही थी. पर तुम उस समय घर में नहीं थे. तुम्हारे भैया तुम्हें शाम से ढूँढ़ने निकल गए. बाद में ये थके-हारे और परेशान घर आए तो देखा तुम अपने कमरे में लेते हो, बेसुद से. तुम्हें छू कर देखा तो पता लगा तुम्हें बहुत बुखार है, डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने इंजेक्शन दिया और कहा, तम्हें कुछ घंटों में होश आएगा। तभी से हम बैठे है.'' 

                तभी भैया बोले- ''जाओ तुम, ज़रा  मिठाई तो लाओ.''

                   योजना भाभी उठी और मिठाई लेने के लिए किचन की तरफ चल दीं. वह यह बोलते हुए कमरे से निकली- ''मजिस्ट्रेड साहब के लिए एक बीवी और मेरे लिए एक देवरानी ला दीजिए, बस. अब बहुत हो गई पढ़ाई।'' इस बात पर भैया और योजना भाभी, दोनों मुस्करा दिए.

                   मुझे ऐसा लगा जैसे माँ बहू को लाने के लिए कह रही है.

                   योजना भाभी मिठाई लेने चली गई थी और मैं बिस्तर पर लेटा मंद-मंद मुस्करा रहा  था.

.............................…………………………………………।


                                                                -अंकुर नाविक 

                                                             (www.ankurnavik.in)