कहानी
दहेज आजकल
आसमान की गुलाबी चमक में सार्थक का उलझे हुए भाव वाला गोरा चेहरा बड़ा अजीब-सा दिख रहा था।वह सुबह-सुबह उठकर बड़े परेशानहाल होकर उसके घर के बरामदे में बड़ी तेजी से सांस लेते हुए टहल रहा था।हालाकि सूरज के उगने का संदेश देती गुलाबी आसमानी चमक थोड़ी तेज हो गई थी, लेकिन फिर भी वह पूरी तरह सुबह नहीं कही जा सकती थी ,क्योंकि हर तरफ अभी भी सन्नाटा पसरा पड़ा था और लोग अभी भी नीन्द में गुम थे।
सार्थक का किशोर चेहरा अब जवान युवक की तरह उभरने लगा था।उसके काले बालों का लहराना अब उसके यौवन की चमक को प्रदर्शित करने लगा था।हालाकि वह कद में पांच फुट डेढ़ इन्च ही था ,लेकिन चेहरे पर बढ़ चुकी दाढ़ी उसकी उम्र को बखूबी दिखाती थी। सार्थक अब अट्ठारह साल का हो चुका था।उसकी बारहवीं की परीक्षाएं खत्म हो चुकी थी और अब उसकी बारी थी अपने सपनों को पूरा करने के पहले कदम को बढ़ाने की।
सार्थक एक आईआईटीअन (उच्च स्तरीय इन्जीनियर) बनना चाहता था।आईआईटी-जेईई की प्रवेश परीक्षा की कठिनता को वह जानता था।वह इस प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए शहर के टॉप कोचिंग क्लास इन्सटीट्यूट को जॉइन करना चाहता था।वह आज सुबह ही जाकर इस बारे में उसके माता-पिता से बात करना चाहता था।
पिछले दिन शाम तक तो सब ठीक था, लेकिन उसे पिछले दिन ही शाम की चाय के बाद पता चला था कि उसकी बड़ी बहन की शादी की तारीख पक्की हो गई थी।उसकी बहन की शादी की तारीख अगले महीने की ही थी।
अब सार्थक के लिए उसे अपने आइ्र्रआईटीअन बनने के सपने को साकार करने के लिए आई-आई-टी प्रवेश परीक्षा की कोचिंग के बारे में अपने माता-पिता से बातें करना खुद को शर्मिन्दा करने जैसा था।क्योंकि सार्थक जानता था कि उसके घर में केवल उसके पिताजी ही कमाते थे,जो एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थे।बड़ी मुश्किल से उन्होंने कुछ पैसा इकट्ठा किया होगा और अब वो यकीनन उस पैसे को सार्थक की बड़ी बहन की शादी में लगाना चाहते होंगे ,ऐसे में सार्थक उनसे कोचिंग इन्स्टीट्यूट जाॅइन करने के लिए पैसे कैसे मांग सकता था।
सार्थक एक बहुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी था और वह अपने घर की आर्थिक स्थिति के लिए भी सजग था, वह जानता था कि उसके पिताजी की कमाई के हिसाब से आईआईटी की कोचिंग की फीस बहुत ज्यादा होगी ,लेकिन फिर भी पिताजी किसी तरह बस कोचिंग के लिए पैसा जुटा लेते है, तो फिर आगे आई-आई-टी कोलेज में सिलेक्शन के बाद उसे वैसे ही एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) मिल जाने वाला था, जो उसकी नौकरी लगने के बाद ही उसकी (सार्थक की) ही तन्ख्वाह में से चुकने वाला था।
सार्थक ने कुछ दिनों से पैसे से लेकर आई-आई-टी की पढ़ाई तक सारी योजनाएं बना ली थी।उसे बस उसके पिताजी से एक बार ही थोड़ी बड़ी आर्थिक मदद चाहिए थी।लेकिन अब अचानक उसके पिताजी ने बहन की शादी का जिम्मा उठा लिया था, तो सार्थक को अपने आप में ही यह कहना कि-‘मुझे कोचिंग इन्स्टीट्यूट के लिए पैसे चाहिए।’ बहुत स्वार्थपूर्ण लग रहा था।
सार्थक ने सब सोचा था, लेकिन कभी बहन की शादी के बारे में तो सोचा ही नहीं था।पिछले साल ही तो उसकी बहन सिमरन की बी. कॉम पूरा कर लेने के बाद सगाई हुई तो जाहिर था उसकी शादी भी होना ही थी, शायद सार्थक ने अपने पिता के नजरिए से सोचने में बस यही बिंदु छोड़ दिया था।
आसमान में सूरज अब बहुत ऊपर आ गया था।बरामदे पार सड़क पर कुछ चहलकदमी की आवाजें भी आने लगी थी।सार्थक ने स्थिर खड़े होकर लगातार उजले होते आसमान को निहारा और फिर मन में कुछ सोचा।शायद आसमान के साथ उसके मन में भी आशा की किरण फूटने लगी थी।उसने सोचा-‘‘वैसे भी वो मेरे पिताजी है, लड़की की शादी उनके लिए जरूरी है, तो मेरी पढ़ाई के लिए भी कोई व्यवस्था जरूर की होगी ,मुझे उनसे बात तो करनी ही पड़ेगी।’’
सार्थक कुछ देर बाद बैठक कक्ष में अपने पिताजी से बात करने के लिए पहुँच गया था।सार्थक के पिताजी आंखों पर एक मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये अखबार पढ़ रहे थे।
सार्थक धीमे से आकर उनके सामने वाले लकड़ी के सोफे पर बैठ गया और अपनी बात कहने के लिए हिम्मत जुटाने लगा।
‘‘पापा!आज आप स्कूल नहीं गए?’’ सार्थक ने बात शुरू की।
‘‘हां।’’ सार्थक के पिताजी ने अपने चश्मे में से न्यूज पेपर के ऊपर से सार्थक की तरफ देखते हुए कहा। ‘‘आजकल स्कूल में छुट्टी चल रही है, बस रिजल्ट बनाने के लिए थोड़ी देर स्कूल जाऊंगा।’’
इतना कहने के बाद उन्होंने फिर न्यूज-पेपर में अपनी आंखें गढ़ा ली।अब तक सार्थक की माताजी किचन से निकलकर चाय-नाश्ता हाथ में लिए बैठक कक्ष में प्रवेश कर चुकी थी।
सार्थक अभी कुछ कहने ही वाला था कि उसकी माताजी बोल उठी- ‘‘सुनिए जी!महीने भर बाद बेटी की शादी है।पैसे-पाई का कुछ सोचा या नहीं?’’
अब तक सार्थक के पिताजी अपना चश्मा उतार चुके थे और पेपर भी तह होकर सोफे के एक कोने में पड़ा हुआ था।अब वे अपनी पत्नी के हाथों से चाय का प्याला ले रहे थे।
‘‘हां, शादी के लिए तो एक-डेढ़ लाख रूपया जमा है।’’सार्थक के पिताजी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
‘‘शादी-ब्याह तो ठीक है, लेकिन बेटी को क्या खाली हाथ भेज दोगे।’’ सार्थक को चाय का कप पकड़ाने के बाद ,अब सार्थक की माताजी ने भी चाय का एक भरा प्याला उठा लिया था।
‘‘हां, दहेज ,गहनों के लिए भी मेरे पास तीस-चालीस हजार रूपये अपनी पाॅलिसी के हो जाएंगे।’’ सार्थक के पिताजी ने अब उत्साह और गम्भीरता के भाव में कहा। ‘‘और जो कमी होगी, उसके लिए मैं क़र्ज़ लेने को भी तैयार हूँ ।बस ये शादी हंसी-खुशी और धूमधाम से हो जाए ,मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा।दिल में ठण्डक हो जाएगी।’’
‘‘बेटी को कम से कम एक ,उसके कमरे के लिए कलर टी. वी. तो देना ही पड़ेगा।’’ सार्थक की मां ने अब थोड़ी भावुकता से कहा।
‘‘हां, कलर टीवी ,डेसिंग टेबल और एक लकड़ी के दीवान की व्यवस्था तो हो ही जाएगी।’’ सार्थक के पिताजी भी भावुकता के आवेग में थे।
‘‘मेरे ख्याल से एक मोटर-साईकिल की व्यवस्था भी हो जाती ,तो अच्छा रहता।’’ सार्थक की मां अब प्लेट में से पराठे का एक टुकड़ा उठाते हुए कह रही थी।
‘‘मोटर-साईकिल में ज़रा मुश्किल जाएगी ,लेकिन मैं कोशिश करके देखूँगा।मेरी ‘वर्मा साहब’ जो एक शोरूम के मालिक है, से अच्छी बातचीत है।’’ सार्थक के पिताजी अब सामने वाले बेडरूम के दरवाजे को निहार रहे थे, जो उनकी बेटी सिमरन का था।
‘‘क्या देख रहे है?’’ सार्थक की माताजी ने मुस्कराते हुए पूछा।
‘‘कुछ नहीं। बस देख रहा हूँ कि सिमरन बेटी कितनी निश्चिन्तता से सो रही है, क्या पता ससुराल में इतने आराम से कभी सो पाए या नहीं।’’ सार्थक के पिताजी के चेहरे पर भावुक-सी मुस्कान थी।
‘‘हम से जो बन पड़ा ,हम कर चुके।जिंदगी की जितनी जमा पूँजी थी।सब सिमरन को दे रहे है।आखिर सिमरन ही में तो हमारी जिन्दगी की सच्ची जमा-राशि है।’’ सार्थक की मां भी भावुकता से अब सिमरन के बैडरूम के दरवाजे को निहार रही थी।
‘‘बस ये सुख और आराम से जिए।उसके बाद कोई चिन्ता नहीं।’’ सार्थक के पिताजी ने मुस्कराते हुए चाय का प्याला नाश्ते की टेबल पर रख दिया।
सार्थक को कुछ लमहों तक ऐसा महसूस होने लगा ,जैसे वह वहां हो ही नहीं।सार्थक का मन इस समय उसके माता-पिता की भावनाओं को आहत करने का नहीं था, लेकिन कुछ था उसके मन में जो उसे झंझोड़ रहा था।
कोई उसके अंदर बैठा कह रहा था कि ये सब गलत है।लेकिन सार्थक मुँह से शब्द नहीं निकाल पा रहा था।क्या यह कहना कि उसकी स्वयं की पढ़ाई के लिए उसकी बहन की शादी में कुछ कमी कर दी जाए ,सही था?क्या उसका स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता था कि वह खुद की पढ़ाई के लिए अपनी बहन के ऐशोआराम में कमी करवा दे?
उसके मन में सिर्फ यह जवाब मिल रहा था कि जो हो रहा है वह सही नहीं है।लेकिन जैसे सार्थक कह ही नहीं पा रहा था कि यह सब गलत है।कुछ देर के आन्तरिक द्वन्द्व के बाद सार्थक ने बोलने की कोशिश की- ‘‘पापा! मैं आपसे अपनी पढ़ाई को लेकर कुछ कहना चाहता था।’’
‘‘पढ़ाई के बारे में क्या कहना चाहते थे?’’ सार्थक के पिताजी ने उसे प्रश्नभरी निगाहों से घूरा।
‘‘जी पापा! मैं आई-आई-टी जेईई की परीक्षा देना चाहता हूँ?’’ सार्थक धीमे से झिझकते हुए बोला।
‘‘हां तो जरूर दो ,कब है परीक्षा?वैसे उसमें सिलेक्ट होना मुश्किल है, लेकिन नाॅलेज के लिए जरूर दो।’’ सार्थक के पिताजी ने पुनः अपना अखबार आंखों के सामने करते हुए कहा।
‘‘नहीं पापा, मैं आई-आई-टी जेईई की एग्जाम (परीक्षा) सीरियसली (गंभीरता से) देना चाहता हूँ ।’’ सार्थक ने नीचे देखते हुए कहा।
‘‘हां तो मैं कहां कह रहा हूँ कि परीक्षा मजाक में दो।’’ सार्थक के पिताजी की आवाज में हास्य का पुट था, जो सार्थक के लिए तीखे व्यंग्य जैसा था।
‘‘मेरा मतलब है कि मैं एक साल ड्राॅप (अंतराल) लेकर आई-आई-टी जेईई की कोचिंग जाॅइन करने के बाद इस एग्जाम को फेस (सामना) करना चाहता हूँ।’’ सार्थक ने जैसे एकदम से अपनी बात कह दी।
‘‘ओह!तो तुम्हें भी लग गया कोचिंग का चस्का।’’ सार्थक के पिताजी फिर मुस्कराए। ‘‘उन कोचिंगों में पढ़ाई के अलावा बाकी सबकुछ होता है।’’
‘‘लेकिन पापा!मैं वहां केवल पढ़ाई करने के लिए ही जाऊंगा।मैं सीरियसली एक आईआईटीअन बनना चाहता हूँ।’’ सार्थक ने बैठे-बैठे आगे की तरफ झुकते हुए कहा।
‘‘बेटा आईआईटी-जेईई एग्जाम के बारे में मैं भी जानता हूँ। मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि उस एग्जाम में सिलेक्ट होना कितना कठिन है।’’ सार्थक के पिताजी ने धीमे से गंभीरता से कहा।
‘‘पापा!मैं मेहनत करूंगा।दिन-रात एक कर दूँगा ,बस मुझे थोड़ी-सी मदद कर दीजिए ,मैं वादा करता हूँ कि आईआईटी कोचिंग का पैसा वेस्ट (व्यर्थ) नहीं जाने दूँगा।’’ सार्थक ने हल्की तेज आवाज में कहा।
‘‘बेटा! वो तो ठीक है, लेकिन तुम तो जानते ही हो, कि आईआईटी की कोचिंग में कितना ज्यादा रूपया लगेगा और मेरी आर्थिक स्थिति इस वक्त इतनी अच्छी भी नहीं है।ऊपर से तुम्हारी बहन की शादी भी है।’’ सार्थक के पिताजी ने अखबार को अपने पास में ही सोफे पर पटकते हुए कहा।
‘‘पापा! किसी तरह बस आपको तीस हजार रूपयों की ही तो व्यवस्था करनी है।उसके बाद तो मुझे वैसे ही एजुकेशन लोन मिल जाएगा ,जो मेरी नौकरी लगने के बाद मेरी ही तन्ख्वाह से कटेगा और हो सकता है आपका इन्कम सर्टिफिकेट (आय का प्रमाण-पत्र) लगाने के बाद मुझे काॅलेज फीस में बहुत सारी छूट भी मिल जाए।’’ सार्थक ने अपनी बात पर गम्भीरता से जोर दिया। ‘‘बस पापा, ये एक बार पैसों की व्यवस्था कर दीजिए।’’
‘‘बेटा! मैं तो सोच रहा था कि तुमसे बी. एस. सी. कम्प्लीट (पूरी) कराके पी. एस. सी. या यूपीएससी की परीक्षा दिलवाऊंगा। लेकिन तुम भी आईआईटी की रेस में दौड़ना चाहते हो।'' सार्थक के पिताजी भी अपना पक्ष रखने में पीछे नहीं थे।
‘‘पापा!मेरी रूची शुरू से ही टेक्निकल ब्रान्च में रही है।इसलिए मैं बहुत पहले से ही आईआईटीअन बनना चाहता था।’’
‘‘बेटा!मैं तुमसे ज्यादा बहस नहीं करना चाहता।’’ सार्थक के पिताजी का स्वर तीखा व कठोर हो गया था। ''बस इतना ध्यान रखो कि, जितनी खुद की चादर हो,उतने ही पैर पसारने चाहिए।’’
सार्थक अब सचमुच बहस करने लगा था, शायद इसलिए वह चुप रहना चाहता था।लेकिन यह उसके जीवन का सवाल था। अगर आज वह चुप रह गया, तो एक बार फिर दहेज प्रथा की आड़ में किसी के सपने दफन हो जाने वाले थे।लेकिन सार्थक कुछ देर तक बैठा रहा और फिर जैसे उसके अंदर की ज्वाला फूट पड़ी।
‘‘पापा!आप कह रहे है कि जितनी हैसियत हो ,उतना ही करना चाहिए, तो क्यों मोटर-साईकिल और जाने क्या-क्या सिमरन दीदी की शादी में दे रहे है।जबकि उसके लिए भी आपको कर्जा करना पड़ रहा है।’’ सार्थक की आवाज धीमी थी लेकिन स्वर में जैसे आग थी।
‘‘तो क्या अपनी बहन को खाली हाथ भेज देगा। कैसा भाई है?’’ सार्थक की माताजी धीमे से, स्वाभाविकता से ही कह रही थी, जैसे उन्हें सार्थक की बात समझ ही न आई हो।
‘‘मम्मी! दीदी को खाली हाथ मत भेजो ,सब दो।बस एक मोटर-साईकिल रहने दो। आज हमारे पास सेकण्ड हैण्ड स्कूटर तक नहीं है और पापा कर्जा लेकर दीदी को दहेज में चालीस हजार रूपयों की मोटर-साईकिल दे रहे है। यह सचमुच हमारी हैसियत से ज्यादा है। वैसे भी दीदी के ससुराल वाले पहले से ही इतने पैसे वाले है, तो उन्हें मोटर-साईकिल न देने से क्या फर्क पड़ेगा।’’ सार्थक की आवाज में अब थोड़ी कम कठोरता थी।
‘‘बेटा!इज्जत भी तो कोई चीज़ है।आजकल तो मोटर-साईकिल देना तो बहुत मामूली-सी बात है।ऐसे में हम यदि उसे यह न दें, तो वह कैसा महसूस करेगी और हमारे समाज के लोग क्या कहेंगे?’’ सार्थक के पिताजी ने भी अपनी आवाज में कठोरता को कम कर दिया था।
‘‘आपकी इज्जत क्या सिर्फ दहेज में मोटर-साईकिल देने से ही बनेगी?जब आपका बेटा एक आईआईटी इंजीनियर बनेगा ,तब आपका सिर गर्व से ऊंचा नहीं होगा।’’ सार्थक ने अजीब ढंग से मुस्कराते हुए कहा।
‘‘कैसा दहेज बेटा?हम जो दे रहे है, वह अपनी खुशी से अपनी बेटी को दे रहे है।हमसे किसी ने जबर्दस्ती नहीं की है।’’ सार्थक के पिताजी भी तीखी हंसी हंसने लगे।
‘‘तो मत दीजिए न, अपनी खुशी से ये ताम-झाम।क्या हो जाएगा?दीदी के ससुराल वाले तो कुछ नहीं मांग रहे।’’ सार्थक की आवाज का सुर धीमा था, लेकिन आवाज का पुट आक्रोश भरा था।
‘‘वाह-वाह!इतने सालों से बेटी की शादी धूम-धाम से करने का ख्वाब देख रहे थे, अपना खून-पसीना एक कर रहे थे और आज ये लाटसाहब कहते है-कुछ मत दो बेटी को।’’ सार्थक के पिताजी उनकी पत्नी को देखने लगे, जो कभी सार्थक को ,तो कभी अपने पति को घूर रहीं थी।
‘‘पापा! मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि दीदी को खाली हाथ भेज दो ,मैं सिर्फ मोटर-साईकिल न देकर उतने पैसे मुझे देने के लिए कह रहा हूँ ,बस।’’ सार्थक का स्वर स्पष्ट था और उम्मीद से ज्यादा शान्त भी।
‘‘हे भगवान!आज की युवा पीढ़ी को जाने क्या हो गया है?जिस बहन के साथ बचपन से खेल-खाकर बड़ा हुआ ,उसकी खुशी ही नहीं देखी जा रही।’’ सार्थक के पिताजी ने पुनः उनकी पत्नी की तरफ नज़र डालते हुए कहा।
‘‘पापा!आप समझ नहीं पा रहे है, मुझे।मैं अपनी बहन की खुशियों की बलियां नहीं चढ़ाना चाहता।’’ सार्थक का स्वर सामान्य-सा ही था।
‘‘बेटा!मुझे तो आज ही पता चला कि तू कितना स्वार्थी है?’’ सार्थक के पिताजी ने हल्के रूंधे गले से और सार्थक से नजरें हटाकर जमीन की तरफ देखते हुए कहा।
‘‘अगर मैं स्वार्थी हूँ ,तो आप भी कुछ कम स्वार्थी नहीं है, जो अपनी झूठी शान के लिए मेरी लाईफ (जीवन) को ,मेरे भविष्य को और मेरे टैलेन्ट (प्रतिभा) को बलि चढ़ा रहे है।’’ सार्थक ने धीमे से किन्तु दृढ़ता से कहा, उसे अपने कहे पर ज़रा भी अफसोस नहीं था।
सार्थक के पिताजी को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वो किसी जंग में हार गए हो ,लेकिन अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते हो।
कुछ देर खामोशी छाई रही।सार्थक अब सचमुच अपने पिताजी से बहस करते हुए अच्छा महसूस नहीं कर रहा था। उसने जल्दी से अपना नाश्ता खत्म किया।उसके बाद उसकी माताजी नाश्ते के झूठे बर्तन उठाकर किचन में चली गई।
सार्थक दरवाजे से बाहर जाने के लिए बढ़ा। लेकिन तभी उसे उसके पिताजी की रूखी आवाज आई।
‘‘अगर तुम्हें कोई जरूरी काम न हो ,तो बैंक से कुछ रूपया निकाल लाओ।’’
सार्थक के पिताजी के हाथों में चेकबुक थी। सार्थक ने बिना कुछ कहे उनके हाथों से चेकबुक ले ली और घर से बाहर आ गया। वह बैंक की तरफ ले जाने वाली सड़क पर चहल-पहल से भरे माहौल में गुमसुम-सा चला जा रहा था।
समाज के लोग पढ़-लिख गये है, आज कोई दहेज नहीं मांगता। लेकिन क्या फिर भी दहेज की आंच में कोई नहीं तपता? यह सवाल शायद कितने ही सार्थकों के दिल में तप रहा है।पहले दहेज अत्याचारों के रूप में लिया जाता था, जबर्दस्ती मांग करके और आज लोगों की पढ़ी-लिखी बुद्धि की संकीर्ण सोच और झूठे सम्मानों की आड़ में दिया जाता है।
घर-बार ,पढ़ाई आदि की चादर सिकोड़कर झूठे सम्मान के रबर के तम्बू को जबर्दस्ती खींचा जाता है।उस तम्बू में दहेज ठूसा जाता है।आज लोग पढ़-लिख गए, समाज की सोच बदल गई, लेकिन कुरीतियां आज भी वहीं की वहीं है, बस उनके अत्याचारों के शिकार बदल गए है।पहले बूढ़े मां-बाप पर दहेज की गाज गिरा करती थी, और आज देश के करोड़ों नौजवानों ,प्रतिभावान सार्थकों पर।
सार्थक के हाथ कांप रहे थे।उसके अंदर की ज्वाला असहनीय हो रही थी।एक तरफ उसका भविष्य था, सपने थे, सच्चाई थी और दूसरी तरफ थी उसके माता-पिता की झूठी शान और गलतफहमी कि दहेज देने में उसकी बहन की खुशी थी।सार्थक अपने मन की यथार्थवादी आग से अपने माता-पिता की भावुकता को नहीं झुलसाना चाहता था, लेकिन कुछ था उसके मन में, जो उसे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा था।
अचानक उसने दृढ़ हाथों से चेकबुक खोली।उसमें तीन हजार की राशि भरी हुई थी, जो उसके पिताजी ने उसे बैंक से निकालकर लाने को कही थी।उसने दृढ़ हाथों से अपने पेन से चेकबुक में तीन हजार रूपये को तीस हजार रूपये कर दिया।और दृढ़ता से बैंक की तरफ बढ़ गया।
वह अपने पिताजी की झूठी शान के लिए अपने सपनों की बलि नहीं चढ़ाना चाहता था, वह खुले आसमान में उड़ना चाहता था।वह आज ही तीस हजार रूपये निकालकर कोचिंग की फीस जमा कर देना चाहता था।उसे अब अपने मन की ,विचारों की सच्चाई के कारण कोई फिक्र नहीं थी कि उसके इस कार्य पर उसके माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होगी।उसे बस इतना ध्यान था कि वह सही था।
परिवर्तन की शुरूआत हो चुकी थी।आसमान में युवा पीढ़ी का चमकता सूरज दिखाई देने लगा था, जो शायद सार्थक जैसे प्रतिभावान नौजवानों से सदा रोशन रहेगा।
आसमान अब खुल चुका था और सुबह से छाई लाल बदलियां हट चुकी थी।शायद इस उजाले में घर पर बैठे सार्थक के पिताजी की आंखें चुँधियाने लगेंगी।...
-अंकुर नाविक,
ई-6,सांई विहार कालोनी,
किशनगंज, महू ,म.प्र.।
पि. को.-453441
मो. नं.-8602275446, 7869279990
सार्थक का किशोर चेहरा अब जवान युवक की तरह उभरने लगा था।उसके काले बालों का लहराना अब उसके यौवन की चमक को प्रदर्शित करने लगा था।हालाकि वह कद में पांच फुट डेढ़ इन्च ही था ,लेकिन चेहरे पर बढ़ चुकी दाढ़ी उसकी उम्र को बखूबी दिखाती थी। सार्थक अब अट्ठारह साल का हो चुका था।उसकी बारहवीं की परीक्षाएं खत्म हो चुकी थी और अब उसकी बारी थी अपने सपनों को पूरा करने के पहले कदम को बढ़ाने की।
सार्थक एक आईआईटीअन (उच्च स्तरीय इन्जीनियर) बनना चाहता था।आईआईटी-जेईई की प्रवेश परीक्षा की कठिनता को वह जानता था।वह इस प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए शहर के टॉप कोचिंग क्लास इन्सटीट्यूट को जॉइन करना चाहता था।वह आज सुबह ही जाकर इस बारे में उसके माता-पिता से बात करना चाहता था।
पिछले दिन शाम तक तो सब ठीक था, लेकिन उसे पिछले दिन ही शाम की चाय के बाद पता चला था कि उसकी बड़ी बहन की शादी की तारीख पक्की हो गई थी।उसकी बहन की शादी की तारीख अगले महीने की ही थी।
अब सार्थक के लिए उसे अपने आइ्र्रआईटीअन बनने के सपने को साकार करने के लिए आई-आई-टी प्रवेश परीक्षा की कोचिंग के बारे में अपने माता-पिता से बातें करना खुद को शर्मिन्दा करने जैसा था।क्योंकि सार्थक जानता था कि उसके घर में केवल उसके पिताजी ही कमाते थे,जो एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थे।बड़ी मुश्किल से उन्होंने कुछ पैसा इकट्ठा किया होगा और अब वो यकीनन उस पैसे को सार्थक की बड़ी बहन की शादी में लगाना चाहते होंगे ,ऐसे में सार्थक उनसे कोचिंग इन्स्टीट्यूट जाॅइन करने के लिए पैसे कैसे मांग सकता था।
सार्थक एक बहुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी था और वह अपने घर की आर्थिक स्थिति के लिए भी सजग था, वह जानता था कि उसके पिताजी की कमाई के हिसाब से आईआईटी की कोचिंग की फीस बहुत ज्यादा होगी ,लेकिन फिर भी पिताजी किसी तरह बस कोचिंग के लिए पैसा जुटा लेते है, तो फिर आगे आई-आई-टी कोलेज में सिलेक्शन के बाद उसे वैसे ही एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) मिल जाने वाला था, जो उसकी नौकरी लगने के बाद ही उसकी (सार्थक की) ही तन्ख्वाह में से चुकने वाला था।
सार्थक ने कुछ दिनों से पैसे से लेकर आई-आई-टी की पढ़ाई तक सारी योजनाएं बना ली थी।उसे बस उसके पिताजी से एक बार ही थोड़ी बड़ी आर्थिक मदद चाहिए थी।लेकिन अब अचानक उसके पिताजी ने बहन की शादी का जिम्मा उठा लिया था, तो सार्थक को अपने आप में ही यह कहना कि-‘मुझे कोचिंग इन्स्टीट्यूट के लिए पैसे चाहिए।’ बहुत स्वार्थपूर्ण लग रहा था।
सार्थक ने सब सोचा था, लेकिन कभी बहन की शादी के बारे में तो सोचा ही नहीं था।पिछले साल ही तो उसकी बहन सिमरन की बी. कॉम पूरा कर लेने के बाद सगाई हुई तो जाहिर था उसकी शादी भी होना ही थी, शायद सार्थक ने अपने पिता के नजरिए से सोचने में बस यही बिंदु छोड़ दिया था।
आसमान में सूरज अब बहुत ऊपर आ गया था।बरामदे पार सड़क पर कुछ चहलकदमी की आवाजें भी आने लगी थी।सार्थक ने स्थिर खड़े होकर लगातार उजले होते आसमान को निहारा और फिर मन में कुछ सोचा।शायद आसमान के साथ उसके मन में भी आशा की किरण फूटने लगी थी।उसने सोचा-‘‘वैसे भी वो मेरे पिताजी है, लड़की की शादी उनके लिए जरूरी है, तो मेरी पढ़ाई के लिए भी कोई व्यवस्था जरूर की होगी ,मुझे उनसे बात तो करनी ही पड़ेगी।’’
सार्थक कुछ देर बाद बैठक कक्ष में अपने पिताजी से बात करने के लिए पहुँच गया था।सार्थक के पिताजी आंखों पर एक मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये अखबार पढ़ रहे थे।
सार्थक धीमे से आकर उनके सामने वाले लकड़ी के सोफे पर बैठ गया और अपनी बात कहने के लिए हिम्मत जुटाने लगा।
‘‘पापा!आज आप स्कूल नहीं गए?’’ सार्थक ने बात शुरू की।
‘‘हां।’’ सार्थक के पिताजी ने अपने चश्मे में से न्यूज पेपर के ऊपर से सार्थक की तरफ देखते हुए कहा। ‘‘आजकल स्कूल में छुट्टी चल रही है, बस रिजल्ट बनाने के लिए थोड़ी देर स्कूल जाऊंगा।’’
इतना कहने के बाद उन्होंने फिर न्यूज-पेपर में अपनी आंखें गढ़ा ली।अब तक सार्थक की माताजी किचन से निकलकर चाय-नाश्ता हाथ में लिए बैठक कक्ष में प्रवेश कर चुकी थी।
सार्थक अभी कुछ कहने ही वाला था कि उसकी माताजी बोल उठी- ‘‘सुनिए जी!महीने भर बाद बेटी की शादी है।पैसे-पाई का कुछ सोचा या नहीं?’’
अब तक सार्थक के पिताजी अपना चश्मा उतार चुके थे और पेपर भी तह होकर सोफे के एक कोने में पड़ा हुआ था।अब वे अपनी पत्नी के हाथों से चाय का प्याला ले रहे थे।
‘‘हां, शादी के लिए तो एक-डेढ़ लाख रूपया जमा है।’’सार्थक के पिताजी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
‘‘शादी-ब्याह तो ठीक है, लेकिन बेटी को क्या खाली हाथ भेज दोगे।’’ सार्थक को चाय का कप पकड़ाने के बाद ,अब सार्थक की माताजी ने भी चाय का एक भरा प्याला उठा लिया था।
‘‘हां, दहेज ,गहनों के लिए भी मेरे पास तीस-चालीस हजार रूपये अपनी पाॅलिसी के हो जाएंगे।’’ सार्थक के पिताजी ने अब उत्साह और गम्भीरता के भाव में कहा। ‘‘और जो कमी होगी, उसके लिए मैं क़र्ज़ लेने को भी तैयार हूँ ।बस ये शादी हंसी-खुशी और धूमधाम से हो जाए ,मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा।दिल में ठण्डक हो जाएगी।’’
‘‘बेटी को कम से कम एक ,उसके कमरे के लिए कलर टी. वी. तो देना ही पड़ेगा।’’ सार्थक की मां ने अब थोड़ी भावुकता से कहा।
‘‘हां, कलर टीवी ,डेसिंग टेबल और एक लकड़ी के दीवान की व्यवस्था तो हो ही जाएगी।’’ सार्थक के पिताजी भी भावुकता के आवेग में थे।
‘‘मेरे ख्याल से एक मोटर-साईकिल की व्यवस्था भी हो जाती ,तो अच्छा रहता।’’ सार्थक की मां अब प्लेट में से पराठे का एक टुकड़ा उठाते हुए कह रही थी।
‘‘मोटर-साईकिल में ज़रा मुश्किल जाएगी ,लेकिन मैं कोशिश करके देखूँगा।मेरी ‘वर्मा साहब’ जो एक शोरूम के मालिक है, से अच्छी बातचीत है।’’ सार्थक के पिताजी अब सामने वाले बेडरूम के दरवाजे को निहार रहे थे, जो उनकी बेटी सिमरन का था।
‘‘क्या देख रहे है?’’ सार्थक की माताजी ने मुस्कराते हुए पूछा।
‘‘कुछ नहीं। बस देख रहा हूँ कि सिमरन बेटी कितनी निश्चिन्तता से सो रही है, क्या पता ससुराल में इतने आराम से कभी सो पाए या नहीं।’’ सार्थक के पिताजी के चेहरे पर भावुक-सी मुस्कान थी।
‘‘हम से जो बन पड़ा ,हम कर चुके।जिंदगी की जितनी जमा पूँजी थी।सब सिमरन को दे रहे है।आखिर सिमरन ही में तो हमारी जिन्दगी की सच्ची जमा-राशि है।’’ सार्थक की मां भी भावुकता से अब सिमरन के बैडरूम के दरवाजे को निहार रही थी।
‘‘बस ये सुख और आराम से जिए।उसके बाद कोई चिन्ता नहीं।’’ सार्थक के पिताजी ने मुस्कराते हुए चाय का प्याला नाश्ते की टेबल पर रख दिया।
सार्थक को कुछ लमहों तक ऐसा महसूस होने लगा ,जैसे वह वहां हो ही नहीं।सार्थक का मन इस समय उसके माता-पिता की भावनाओं को आहत करने का नहीं था, लेकिन कुछ था उसके मन में जो उसे झंझोड़ रहा था।
कोई उसके अंदर बैठा कह रहा था कि ये सब गलत है।लेकिन सार्थक मुँह से शब्द नहीं निकाल पा रहा था।क्या यह कहना कि उसकी स्वयं की पढ़ाई के लिए उसकी बहन की शादी में कुछ कमी कर दी जाए ,सही था?क्या उसका स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता था कि वह खुद की पढ़ाई के लिए अपनी बहन के ऐशोआराम में कमी करवा दे?
उसके मन में सिर्फ यह जवाब मिल रहा था कि जो हो रहा है वह सही नहीं है।लेकिन जैसे सार्थक कह ही नहीं पा रहा था कि यह सब गलत है।कुछ देर के आन्तरिक द्वन्द्व के बाद सार्थक ने बोलने की कोशिश की- ‘‘पापा! मैं आपसे अपनी पढ़ाई को लेकर कुछ कहना चाहता था।’’
‘‘पढ़ाई के बारे में क्या कहना चाहते थे?’’ सार्थक के पिताजी ने उसे प्रश्नभरी निगाहों से घूरा।
‘‘जी पापा! मैं आई-आई-टी जेईई की परीक्षा देना चाहता हूँ?’’ सार्थक धीमे से झिझकते हुए बोला।
‘‘हां तो जरूर दो ,कब है परीक्षा?वैसे उसमें सिलेक्ट होना मुश्किल है, लेकिन नाॅलेज के लिए जरूर दो।’’ सार्थक के पिताजी ने पुनः अपना अखबार आंखों के सामने करते हुए कहा।
‘‘नहीं पापा, मैं आई-आई-टी जेईई की एग्जाम (परीक्षा) सीरियसली (गंभीरता से) देना चाहता हूँ ।’’ सार्थक ने नीचे देखते हुए कहा।
‘‘हां तो मैं कहां कह रहा हूँ कि परीक्षा मजाक में दो।’’ सार्थक के पिताजी की आवाज में हास्य का पुट था, जो सार्थक के लिए तीखे व्यंग्य जैसा था।
‘‘मेरा मतलब है कि मैं एक साल ड्राॅप (अंतराल) लेकर आई-आई-टी जेईई की कोचिंग जाॅइन करने के बाद इस एग्जाम को फेस (सामना) करना चाहता हूँ।’’ सार्थक ने जैसे एकदम से अपनी बात कह दी।
‘‘ओह!तो तुम्हें भी लग गया कोचिंग का चस्का।’’ सार्थक के पिताजी फिर मुस्कराए। ‘‘उन कोचिंगों में पढ़ाई के अलावा बाकी सबकुछ होता है।’’
‘‘लेकिन पापा!मैं वहां केवल पढ़ाई करने के लिए ही जाऊंगा।मैं सीरियसली एक आईआईटीअन बनना चाहता हूँ।’’ सार्थक ने बैठे-बैठे आगे की तरफ झुकते हुए कहा।
‘‘बेटा आईआईटी-जेईई एग्जाम के बारे में मैं भी जानता हूँ। मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि उस एग्जाम में सिलेक्ट होना कितना कठिन है।’’ सार्थक के पिताजी ने धीमे से गंभीरता से कहा।
‘‘पापा!मैं मेहनत करूंगा।दिन-रात एक कर दूँगा ,बस मुझे थोड़ी-सी मदद कर दीजिए ,मैं वादा करता हूँ कि आईआईटी कोचिंग का पैसा वेस्ट (व्यर्थ) नहीं जाने दूँगा।’’ सार्थक ने हल्की तेज आवाज में कहा।
‘‘बेटा! वो तो ठीक है, लेकिन तुम तो जानते ही हो, कि आईआईटी की कोचिंग में कितना ज्यादा रूपया लगेगा और मेरी आर्थिक स्थिति इस वक्त इतनी अच्छी भी नहीं है।ऊपर से तुम्हारी बहन की शादी भी है।’’ सार्थक के पिताजी ने अखबार को अपने पास में ही सोफे पर पटकते हुए कहा।
‘‘पापा! किसी तरह बस आपको तीस हजार रूपयों की ही तो व्यवस्था करनी है।उसके बाद तो मुझे वैसे ही एजुकेशन लोन मिल जाएगा ,जो मेरी नौकरी लगने के बाद मेरी ही तन्ख्वाह से कटेगा और हो सकता है आपका इन्कम सर्टिफिकेट (आय का प्रमाण-पत्र) लगाने के बाद मुझे काॅलेज फीस में बहुत सारी छूट भी मिल जाए।’’ सार्थक ने अपनी बात पर गम्भीरता से जोर दिया। ‘‘बस पापा, ये एक बार पैसों की व्यवस्था कर दीजिए।’’
‘‘बेटा! मैं तो सोच रहा था कि तुमसे बी. एस. सी. कम्प्लीट (पूरी) कराके पी. एस. सी. या यूपीएससी की परीक्षा दिलवाऊंगा। लेकिन तुम भी आईआईटी की रेस में दौड़ना चाहते हो।'' सार्थक के पिताजी भी अपना पक्ष रखने में पीछे नहीं थे।
‘‘पापा!मेरी रूची शुरू से ही टेक्निकल ब्रान्च में रही है।इसलिए मैं बहुत पहले से ही आईआईटीअन बनना चाहता था।’’
‘‘बेटा!मैं तुमसे ज्यादा बहस नहीं करना चाहता।’’ सार्थक के पिताजी का स्वर तीखा व कठोर हो गया था। ''बस इतना ध्यान रखो कि, जितनी खुद की चादर हो,उतने ही पैर पसारने चाहिए।’’
सार्थक अब सचमुच बहस करने लगा था, शायद इसलिए वह चुप रहना चाहता था।लेकिन यह उसके जीवन का सवाल था। अगर आज वह चुप रह गया, तो एक बार फिर दहेज प्रथा की आड़ में किसी के सपने दफन हो जाने वाले थे।लेकिन सार्थक कुछ देर तक बैठा रहा और फिर जैसे उसके अंदर की ज्वाला फूट पड़ी।
‘‘पापा!आप कह रहे है कि जितनी हैसियत हो ,उतना ही करना चाहिए, तो क्यों मोटर-साईकिल और जाने क्या-क्या सिमरन दीदी की शादी में दे रहे है।जबकि उसके लिए भी आपको कर्जा करना पड़ रहा है।’’ सार्थक की आवाज धीमी थी लेकिन स्वर में जैसे आग थी।
‘‘तो क्या अपनी बहन को खाली हाथ भेज देगा। कैसा भाई है?’’ सार्थक की माताजी धीमे से, स्वाभाविकता से ही कह रही थी, जैसे उन्हें सार्थक की बात समझ ही न आई हो।
‘‘मम्मी! दीदी को खाली हाथ मत भेजो ,सब दो।बस एक मोटर-साईकिल रहने दो। आज हमारे पास सेकण्ड हैण्ड स्कूटर तक नहीं है और पापा कर्जा लेकर दीदी को दहेज में चालीस हजार रूपयों की मोटर-साईकिल दे रहे है। यह सचमुच हमारी हैसियत से ज्यादा है। वैसे भी दीदी के ससुराल वाले पहले से ही इतने पैसे वाले है, तो उन्हें मोटर-साईकिल न देने से क्या फर्क पड़ेगा।’’ सार्थक की आवाज में अब थोड़ी कम कठोरता थी।
‘‘बेटा!इज्जत भी तो कोई चीज़ है।आजकल तो मोटर-साईकिल देना तो बहुत मामूली-सी बात है।ऐसे में हम यदि उसे यह न दें, तो वह कैसा महसूस करेगी और हमारे समाज के लोग क्या कहेंगे?’’ सार्थक के पिताजी ने भी अपनी आवाज में कठोरता को कम कर दिया था।
‘‘आपकी इज्जत क्या सिर्फ दहेज में मोटर-साईकिल देने से ही बनेगी?जब आपका बेटा एक आईआईटी इंजीनियर बनेगा ,तब आपका सिर गर्व से ऊंचा नहीं होगा।’’ सार्थक ने अजीब ढंग से मुस्कराते हुए कहा।
‘‘कैसा दहेज बेटा?हम जो दे रहे है, वह अपनी खुशी से अपनी बेटी को दे रहे है।हमसे किसी ने जबर्दस्ती नहीं की है।’’ सार्थक के पिताजी भी तीखी हंसी हंसने लगे।
‘‘तो मत दीजिए न, अपनी खुशी से ये ताम-झाम।क्या हो जाएगा?दीदी के ससुराल वाले तो कुछ नहीं मांग रहे।’’ सार्थक की आवाज का सुर धीमा था, लेकिन आवाज का पुट आक्रोश भरा था।
‘‘वाह-वाह!इतने सालों से बेटी की शादी धूम-धाम से करने का ख्वाब देख रहे थे, अपना खून-पसीना एक कर रहे थे और आज ये लाटसाहब कहते है-कुछ मत दो बेटी को।’’ सार्थक के पिताजी उनकी पत्नी को देखने लगे, जो कभी सार्थक को ,तो कभी अपने पति को घूर रहीं थी।
‘‘पापा! मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि दीदी को खाली हाथ भेज दो ,मैं सिर्फ मोटर-साईकिल न देकर उतने पैसे मुझे देने के लिए कह रहा हूँ ,बस।’’ सार्थक का स्वर स्पष्ट था और उम्मीद से ज्यादा शान्त भी।
‘‘हे भगवान!आज की युवा पीढ़ी को जाने क्या हो गया है?जिस बहन के साथ बचपन से खेल-खाकर बड़ा हुआ ,उसकी खुशी ही नहीं देखी जा रही।’’ सार्थक के पिताजी ने पुनः उनकी पत्नी की तरफ नज़र डालते हुए कहा।
‘‘पापा!आप समझ नहीं पा रहे है, मुझे।मैं अपनी बहन की खुशियों की बलियां नहीं चढ़ाना चाहता।’’ सार्थक का स्वर सामान्य-सा ही था।
‘‘बेटा!मुझे तो आज ही पता चला कि तू कितना स्वार्थी है?’’ सार्थक के पिताजी ने हल्के रूंधे गले से और सार्थक से नजरें हटाकर जमीन की तरफ देखते हुए कहा।
‘‘अगर मैं स्वार्थी हूँ ,तो आप भी कुछ कम स्वार्थी नहीं है, जो अपनी झूठी शान के लिए मेरी लाईफ (जीवन) को ,मेरे भविष्य को और मेरे टैलेन्ट (प्रतिभा) को बलि चढ़ा रहे है।’’ सार्थक ने धीमे से किन्तु दृढ़ता से कहा, उसे अपने कहे पर ज़रा भी अफसोस नहीं था।
सार्थक के पिताजी को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वो किसी जंग में हार गए हो ,लेकिन अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते हो।
कुछ देर खामोशी छाई रही।सार्थक अब सचमुच अपने पिताजी से बहस करते हुए अच्छा महसूस नहीं कर रहा था। उसने जल्दी से अपना नाश्ता खत्म किया।उसके बाद उसकी माताजी नाश्ते के झूठे बर्तन उठाकर किचन में चली गई।
सार्थक दरवाजे से बाहर जाने के लिए बढ़ा। लेकिन तभी उसे उसके पिताजी की रूखी आवाज आई।
‘‘अगर तुम्हें कोई जरूरी काम न हो ,तो बैंक से कुछ रूपया निकाल लाओ।’’
सार्थक के पिताजी के हाथों में चेकबुक थी। सार्थक ने बिना कुछ कहे उनके हाथों से चेकबुक ले ली और घर से बाहर आ गया। वह बैंक की तरफ ले जाने वाली सड़क पर चहल-पहल से भरे माहौल में गुमसुम-सा चला जा रहा था।
समाज के लोग पढ़-लिख गये है, आज कोई दहेज नहीं मांगता। लेकिन क्या फिर भी दहेज की आंच में कोई नहीं तपता? यह सवाल शायद कितने ही सार्थकों के दिल में तप रहा है।पहले दहेज अत्याचारों के रूप में लिया जाता था, जबर्दस्ती मांग करके और आज लोगों की पढ़ी-लिखी बुद्धि की संकीर्ण सोच और झूठे सम्मानों की आड़ में दिया जाता है।
घर-बार ,पढ़ाई आदि की चादर सिकोड़कर झूठे सम्मान के रबर के तम्बू को जबर्दस्ती खींचा जाता है।उस तम्बू में दहेज ठूसा जाता है।आज लोग पढ़-लिख गए, समाज की सोच बदल गई, लेकिन कुरीतियां आज भी वहीं की वहीं है, बस उनके अत्याचारों के शिकार बदल गए है।पहले बूढ़े मां-बाप पर दहेज की गाज गिरा करती थी, और आज देश के करोड़ों नौजवानों ,प्रतिभावान सार्थकों पर।
सार्थक के हाथ कांप रहे थे।उसके अंदर की ज्वाला असहनीय हो रही थी।एक तरफ उसका भविष्य था, सपने थे, सच्चाई थी और दूसरी तरफ थी उसके माता-पिता की झूठी शान और गलतफहमी कि दहेज देने में उसकी बहन की खुशी थी।सार्थक अपने मन की यथार्थवादी आग से अपने माता-पिता की भावुकता को नहीं झुलसाना चाहता था, लेकिन कुछ था उसके मन में, जो उसे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा था।
अचानक उसने दृढ़ हाथों से चेकबुक खोली।उसमें तीन हजार की राशि भरी हुई थी, जो उसके पिताजी ने उसे बैंक से निकालकर लाने को कही थी।उसने दृढ़ हाथों से अपने पेन से चेकबुक में तीन हजार रूपये को तीस हजार रूपये कर दिया।और दृढ़ता से बैंक की तरफ बढ़ गया।
वह अपने पिताजी की झूठी शान के लिए अपने सपनों की बलि नहीं चढ़ाना चाहता था, वह खुले आसमान में उड़ना चाहता था।वह आज ही तीस हजार रूपये निकालकर कोचिंग की फीस जमा कर देना चाहता था।उसे अब अपने मन की ,विचारों की सच्चाई के कारण कोई फिक्र नहीं थी कि उसके इस कार्य पर उसके माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होगी।उसे बस इतना ध्यान था कि वह सही था।
परिवर्तन की शुरूआत हो चुकी थी।आसमान में युवा पीढ़ी का चमकता सूरज दिखाई देने लगा था, जो शायद सार्थक जैसे प्रतिभावान नौजवानों से सदा रोशन रहेगा।
आसमान अब खुल चुका था और सुबह से छाई लाल बदलियां हट चुकी थी।शायद इस उजाले में घर पर बैठे सार्थक के पिताजी की आंखें चुँधियाने लगेंगी।...
-अंकुर नाविक,
ई-6,सांई विहार कालोनी,
किशनगंज, महू ,म.प्र.।
पि. को.-453441
मो. नं.-8602275446, 7869279990
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