Saturday 29 March 2014

Prabhaari Saahab Kii Prem Katha

                                            व्यंग्य-कथा

                                             प्रभारी साहब की प्रेम कथा


          जी आज हमारे घर पर आने वाले साप्ताहिक अखबार में उस कंकालनुमा सहपाठी फरहान कुरैशी के युवा मीडिया प्रभारी बन जाने की ख़बर पढ़कर बड़ी ईष्र्या और आश्चर्य हुआ।हमें वो पुराने दिन याद आने लगे।
                   उस दिन का दिन बरसात के मौसम की अनचाही उमस से बड़ी बुरी तरह तप रहा था।हम जब हिन्दी विषय का पीरेड ख़त्म होने के बाद लंच में कक्षाओं से बाहर निकले तो जैसे जान में जान आ पाई।हमें तो ऐसा लग रहा था, जैसे उस भवन से जल्दी से जल्दी बाहर निकलकर पेड़ों की ठण्डी छांह में पनाह ले लें।हम गर्मी से परेशानहाल लन्च के समय कक्षाओं से ऐसे निकल रहे थे, जैसे कुत्ते चोर को देखकर भागे जा रहे हो।
                   बड़ी अजीब बात थी।हमारा विद्यालय शहर का इतना प्रतिष्ठित विद्यालय था और कक्षाओं में पंखे नहीं थे।दरअसल कुछ सालों पहले हमारे विद्यालय के कुछ बारहवीं के विद्यार्थियों ने पंखों की पंखुड़ियों को कमल के आकार में मोड़ दिया था, जिनके इस राष्ट्र-पुष्प प्रेम की सजा हम अब तक भुगत रहे थे।जाने वाले तो चले गए और हम अब तक भुगत रहे थे। अब हालत यह थी कि कक्षा में ट्यूबलाइट तक नसीब नहीं होती थी।हमारी हालत दंगों में पुलिस द्वारा पकड़े गए सज्जनों जैसी थी।
                   कभी-कभी इस गर्मी में अपने विद्यालय के ऊपर कोफ्त निकलती थी कि जितने तो इनके पंखों का नुकसान नहीं हुआ होगा, उससे दो या तीन गुना अधिक रूपयों की तो इन्होंने बिजली बचा ली होगी और हमारी फीस सुअरों की तरह हज़म कर ली होगी।क्या करें, अब गंदगी तो हर जगह है, तो सुअर भी बेचारे कहां जाएंगे।जैसे भी हो हमें तो इस स्कूल की टायर-ट्यूबनुमा प्रतिष्ठा ही चाहिए थी।हमारे विद्यालय की प्रतिष्ठा का तो जवाब ही नहीं है।इतनी मजबूत और टिकाऊ है कि अंदर भरे खालीपन का तो पता ही नहीं चलता।
                   भौतिकी और रसायन के प्रयोग ठीक से कराए नहीं जाते।कम्प्यूटर के टीचर्स हर महीने बदलते है और दोस्तों-यारों की मेहफिलों के बीच कहीं-कहीं सलीम और अनारकली भी नज़र  आ ही जाते है, जिनके बीच बादशाह अकबर हर रोज़ मुस्कराते हुए पधारते है और मुस्कराते हुए निकल जाते है। जी हां बादशाह अकबर, हमारे ‘ज़ीन-ए-इलाही’, आदरणीय प्रधानाध्यापक जी।सिर के बाल झड़ गए, भौंहे तक सफेद हो गई है, उसके बाद भी बालों में डाई लगाकर विद्यालय का भ्रमण करने ऐसे आते है, जैसे सचमुच बादशाह अकबर पधार रहे हो।बादशाह अकबर भी कुछ देर में निकल ही जाते है, बस कक्षाओं में उनके आने से थोड़ी सख़्ती का भौण्डा प्रदर्शन किया जाता है, जिससे वे इस झूठे भ्रम में रह सकें कि पूरा विद्यालय उनके अनुशासन में है।थोड़ी देर में आखिर सब सामान्य हो ही जाता है।
                   विद्यार्थियों के लिए प्रधानाध्यापक भी बस एक टाई पहने ब्लैक एण्ड व्हाईट ट्रेफिक इन्स्पेक्टर की तरह है, जो  हमेशा अस्त-व्यस्त रहने वाले कक्षाओं के ट्रेफिक को कुछ समय के लिए व्यवस्थित करके चला जाता है। यह इस मामले में ज़रा प्रतिष्ठित किस्म का ट्रेफिक इन्स्पेक्टर है।खैर लन्च में किसी ट्रेफिक इंस्पेक्टर या हवलदार(उप प्राचार्य या अन्य कोई टीचर) के आने की आशंका नहीं थी।वे दानों सलीम और अनारकली नुमा शख़्स कक्षा के बाहर ही बरामदेनुमा खुले हुए अहाते की मुँडेर के पास खड़े थे।
                   दुबला-पतला, कंकालनुमा शरीर।चेहरा एकदम पपड़ीनुमा-सा और कुछ खोपड़ीनुमा-सा।शायद जीव-विज्ञान वाले चाहते तो उसे अपने साथ ले जाकर कंकाल का अध्ययन कर सकते थे।बस एक चीज़ थी, जो उसकी थोड़ी ठीक थी, वह था उसका लम्बा कद।यही था हमारी कक्षा का एक सलीम ‘फरहान कुरैशी’।ग्यारहवीं में विज्ञान संकाय में प्रवेश लिया था उसने।दसवीं में न अच्छे नम्बर आए थे और दिमाग की हालत भी कुछ-कुछ शरीर जैसी ही थी।
                   दूसरी शख़्स थी निशा चैहान।हमारी कक्षा की एक अनारकली।शरीर से फरहान के पूरे एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार गुना थी वो।शरीर में अनावश्यक चर्बी थी और भारी-भरकम शरीर वाली थी।हालाकि वो पढ़ने में फरहान से काफी ठीक थी और समझदार भी थी। यूँ  कह सकते है कि दिमाग और समझदारी में भी वो शायद फरहान की चार गुना ही थी।
                   खैर यह अच्छी बात है कि हमारे मुगल दरबार में अनारकली के बादशाह अकबर के सामने नाचने की प्रथा नहीं है, अन्यथा हमारे मुगलाई महल पर कयामत आ जाती और वह ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाता।दूसरी बात यह भी अच्छी है कि हमारे सलीम और अनारकली प्रेम-पंछियों की तरह आसमान में उड़ने की तमन्ना नहीं रखते, वरना ख़्वामोख़्वाह सलीम और अनारकली की महत्वाकांक्षाओं को ठेस पहुंचती, क्योंकि सलीम साहब उड़ते, तो उड़ते ही चले जाते।लेकिन उनकी अनारकली ज्यादा दूर तक नहीं उड़ पातीं।
                   वो अक्सर लंच के समय वहाँ अकेले खड़े रहते थे।और सब जानते थे कि वे दोनों क्या बातें करते होंगे।हालाकि वे हमेशा नाटक करते थे कि उनके रिश्ते के बारे में वे खुलकर बातें नहीं करते है, लेकिन सारी कक्षा जानती थी कि उनके बीच क्या चल रहा था।शायद जो नहीं चल रहा था, वो भी जानती थी।
                   फरहान अक्सर रोज़ हमसे कहता था कि आज निशा के साथ बात करके वो उसके और निशा के रिश्ते के बारे में आखिरी फैसला करेगा और रोज़ ही उनका ‘आखिरी फैसला’ नहीं हो पाता था।यह कहते हुए उसे लगभग दो महीने बीत चुके थे और सितम्बर के माह में भयंकर गर्मी पड़ने लगी थी।
                   हमें न फरहान से मतलब था, न निशा से।हमें तो मतलब था बढ़ चुकी अथाह गर्मी और सिर पर त्रैमासिक परीक्षा के बोझ का।लेकिन फिर भी रह-रहकर फरहान की बोझिल बातें हमें कुछ हद तक उन दोनों के रिश्ते के बारे में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न कर रही थी।रोज़ फरहान और निशा का लंच के समय साथ खड़े होकर बात करना, फरहान का रोज़ कहना कि आज आखिरी फैसला है, फरहान का हमें उसका रूमाल दिखाना, जो उसे निशा ने दिया था, जिस पर शायद एक दिल के आकार की आकृति में फरहान और निशा का नाम लिखा था। और फरहान का दिनभर कक्षा में निशा को दिखाने के लिए बनावटी रोब जमाते रहना, जिसे आम भाषा में कलाबाजी या हवाबाजी कहा जाता है, हमारे लिए बड़ा ही मनोरंजक और अनोखा था। जिसे हम किसी फालतू टीवी सीरियल की तरह देखते थे और अपनी पढ़ाई भी करते जाते थे।
                   इधर हम त्रैमासिक परीक्षा की तैयारी में किताबों में धंसे जा रहे थे और उधर फरहान यह कहता घूम रहा था कि निशा स्कूल नहीं आ रही है और उसका काॅल भी मोबाइल पर नहीं उठा रही है।उसके घर के सामने से फरहान अपनी मोटर-साईकिल पर से गुजरा भी, लेकिन उसकी झलक भी उसे नसीब नहीं हो पाई।
                   उसकी इन फालतू बातों पर कोई उसके पीठ पीछे हंसता, कोई उसके सामने ही हंसता, तो कोई बनावटी सहानुभूति प्रकट करता।लेकिन मेरे एक मित्र ने उससे सच्चाई कह दी- ‘‘फरहान! तू सचमुच में बेवकूफ है।वो लड़की तुझसे कोई प्यार-व्यार नहीं करती है। सिर्फ टाईमपास कर रही है और तुझे उलझा रही है।’’ उन महाशय ने फरहान के मुँह पर ही कहा- ‘‘वैसे भी तुझमें ऐसी कमी क्या है, जो वह तुझसे प्यार करने के लिए ‘हां’ नहीं कह रही है।’’
                   मेरे उस दोस्त की बात पर मैं और वह मेरा दोस्त खूब हंसे थे।फरहान ने फिर भी भावुकता से कहा था- ‘‘प्यार तो मैं उससे दीवानों की तरह करता हूँ।’’
                   ‘‘तो जा मर।’’ इतना कहकर मेरा वो दोस्त भी चुप हो अपने काम में लग गया।क्योंकि वो समझ गया था कि फरहान को कुछ समझाने का कोइ्र फायदा नहीं है।
                   यहां निशा मोबाइल नहीं उठा रही थी और उधर गणित का पर्चा बहुत कठिन बनाया गया था।लेकिन फरहान से जब भी पढ़ाई का पूछा गया तो उसने कहा- ‘‘मैं तो तीन-तीन ट्यूशन जाता हूँ।पढ़ाई का तो कोई टेंशन ही नहीं है।’’
                   दिन में स्कूल में छह घण्टे, ट्यूशनों पर तीन घण्टे और बाकी समय कलाबाजी करने के बाद भी फरहान महाशय के लिए पढ़ाई बिल्कुल आसान थी।हमने मन ही मन कहा- ‘ठीक है, भैया।हमें क्या लेना, तुझसे।’
                   गणित का पर्चा प्रलय के समान था और हम पर कड़क बिजली कड़काकर गुजरा।जैसे-तैसे हम तो पास थे, लेकिन इस प्रलय में वह कंकाल कहीं दब गया था।
                   ‘‘मेरे साथ राजनीति खेली जा रही है, टीचर्स मुझे शायद जानबूझकर फेल कर रहे है, वैसे भी इतना कठिन पेपर भी कोई बनाता है, क्या?’’ फरहान महाशय अपने अंक देखकर कह रहे थे, वे तीन विषयों में निपट गए थे, जिनकी वे कोचिंग जाया करते थे।लेकिन फिर भी उन्हें पढ़ाई की ज्यादा चिन्ता नहीं थी।उन्हें चिन्ता इस बात की थी कि उन्होंने निशा के फोन न उठाने पर उसे स्कूल वापस आने पर कुछ अपशब्द कह दिया था, जिस वजह से वे उनसे बात नहीं कर रही थी। खैर परीक्षा के नाटक के मंचित हो जाने के बाद उनका और निशा का वही ‘आखिरी फैसले’ नुमा वार्तालाप फिर शुरू हो गया था।
                   इस बीच फरहान महाशय की तथाकथित कलाबाजी भी निरन्तर जारी थी।उन्होंने ‘कक्षा प्रतिनिधि’ का बैच लगा लिया था और स्कूल की ‘विज्ञान प्रदर्शनी’ में सारे पीरेड छोड़कर अपने महान विज्ञान प्रदर्शन को, अपनी कल्पना को साकार करने में ज़ोरो-शोरो से लग गए थे, जिसमें उनका एक चमचानुमा सुस्त-सा, परंतु कद-काठी से अच्छा युवक ‘विमल’ भी साथ था।सारा काम विज्ञान प्रदर्शन के ‘प्रदर्शनी प्रयोग’ अर्थात प्रोजेक्ट का उनके उन्हीं मित्र ‘विमल’ ने संभाल रखा था और फरहान ने केवल कलाबाजी में अपने कदम आगे बढ़ाये।खैर विज्ञान प्रदर्शनी के बाद फरहान का कुछ लड़कियों से किसी कारणवश कलाबाजी करते हुए झगड़ा हो गया था और उन लड़कियों ने उसे घेर भी लिया था और कुछ अपशब्द भी कह दिये थे।लेकिन फरहान महाशय बड़ी मुश्किल से बचते-बचाते उनके घेरे से निकल आए और हमें कह दिया - ‘‘उन्हें तो मैंने लड़कियां समझकर कुछ कहा नहीं, वरना मैं उनका बहुत बुरा हाल करता।’’ खैर हम केवल उसके इस मासूम विचार पर हंसे और केवल हंसे, क्योंकि हम और कुछ कर भी नहीं सकते थे।वैसे भी हम हकीकत जानते थे।
                   विज्ञान-प्रदर्शनी के कुछ समय बाद फरहान ने हमें बताया कि निशा उसका काॅल इसलिए नहीं उठा रही थी क्योंकि वह पढ़ाई में लगी हुई थी।उसकी इस बात पर हम फिर हंसे।निशा की समझदारी पर शक होने लगा था, लेकिन वो तो अब भी बहुत समझदार थी, तभी तो वह त्रैमासिक में उत्तीर्ण हो गई थी।
                   एक दिन गणित के पीरेड में फरहान महाशय उनकी काॅपी के पीछे कुछ दिखा रहे थे।कुछ फालतू-सी शायरियां और, और भी फालतू चीज़ें, जो शायद निशा ने ही उसे लिखकर दी थी।वो दिखा रहा था, और हम देख रहे थे, सो हमें गणित के शिक्षक (जो बहुत सख़्त थे) ने देख लिया और इन सब में बलि फरहान की उस काॅपी की चढ़ गई, जिसमें रसायन के नाॅट्स लिखे थे।वो काॅपी फरहान की खुद की भी नहीं थी, वह निशा की थी।गणित के सर काॅपी ले गए थे और लौटा नहीं रहे थे।बड़ी मुश्किल से निशा ने खुद जाकर अपनी काॅपी वापस ली क्योंकि फरहान तो केवल अकड़ दिखाकर उनसे काॅपी वापस लेना चाहते थे।इस पूरे प्रकरण पर हम फिर हंसे और इस टीवी सीरियल के एपीसोड के बीच ही मध्यान्तर नुमा अर्द्धवार्षिक परीक्षाएं समीप आ गई।हम पुनः किताबों में धंस गए और फरहान को इस बार भी परीक्षा की चिन्ता नहीं थी, क्योंकि वे अभी भी तीन-तीन कोचिंग जा रहे थे।
                   इस बार भी निशा ने फरहान से दूरी बनाकर पढ़ाई की।एक बार फिर गणित का पर्चा गरजते बादल की तरह बरसा, लेकिन हम फिर निकल आए और वह हड्डियों का ढांचेनुमा युवक फिर बाढ़ में बह गया।
                   परीक्षा के परिणामों के आने पर फरहान का कहना था- ‘‘अरे!पास तो मैं आखिरी में हो ही जाऊंगा। इतनी राजनीति जमी है मेरी कि कोई मुझे फेल नहीं कर सकता।’’ फरहान ऐसे कह रहे थे, जैसे कोई नेता जी चुनाव हारने के बाद अपने भाषण में कहते है।
                   हम फिर पीठ पीछे हंसे और कहा- ‘‘ठीक है।’’
                   लेकिन फरहान अब भी बेफिक्र था।जबकि त्रैमासिक और अद्धवार्षिक परीक्षाओं के अंक वार्षिक परीक्षा में जुड़कर अन्तिम परिणाम आने वाला था।इस हिसाब से त्रैमासिक और अर्द्धवार्षिक में उत्तीर्ण होना जरूरी था।
                   खैर इस बार फरहान महाशय ने तनाव लिया और तकलीफ यह कर ली कि वे उन्हीं गणित के टीचर के पास कोचिंग जाने लगे, जो परीक्षा का पेपर बनाकर काॅपी जांचने वाले थे, व जो हमें कक्षा में भी पढ़ाते थे।एक बार फिर फरहान मियां चिन्तामुक्त थे और कलाबाजी में अग्रसर थे।उनके ‘आखिरी फैसले’ की तारीख अभी भी तय नहीं थी।
                   इस बीच मेरी उनसे झड़प हो गई थी।उन दिनों निशा फिर फरहान से बातें नहीं कर रही थी। शायद वह अब फरहान से रिश्ता तोड़ना चाहती थी, लेकिन फरहान उसे बार-बार मोबाइल पर काॅल करके तंग कर रहा था।उस दिन निशा स्कूल नहीं आई थी और फरहान मियां उन्हें कक्षा में से ही छुपकर अपने (विद्यालय में अवैध) मोबाइल से काॅल लगा रहे थे, उनकी कुछ बातें मोबाइल पर कक्षा में ही शुरू हो चुकी थी।
                   फरहान मियां छुपने के लिये मेरी बैन्च पर आ गये, जो कक्षा में बहुत कोने में थी।मैं आज अकेला वहां बैठा था।फरहान जी बोले- ‘‘हट जा तू यहां से। जा आगे बैठ जा। आज हमारी आखिरी बात होगी।’’
                   ‘‘अरे!तो बैठ जा मेरे पास, बहुत जगह खाली है।’’ मैंने हास्यास्पद अन्दाज़ में कहा।
                   ‘‘क्यों दिमाग खराब कर रहा है?वैसे ही मुझे बहुत टेन्शन है।’’
                   मैं उसकी इस बात पर हंसा और बिना ज्यादा बहसबाजी किए, मेरे उसी मित्र के साथ जाकर बैठ गया, जो अक्सर फरहान को उसके मुँह पर उसके फालतू प्रेम-प्रसंग के बारे में सच्चाई कह देता था।मेरे उस मित्र ने पीछे मुड़कर फरहान को देखकर कहा- ‘‘फरहान!तू तो एक काम कर, पीछे की दीवार में गड्ढा खोदकर उसी में बैठा कर।’’
                   उन मित्र की इस बात में मेरे प्रति सहानुभूति थी।और इस सहानुभूति ने मुझे एक बार फिर फरहान के ऊपर खुलकर हंसने का मौका दिया।खैर हमारे लिए दिन एक बार फिर परीक्षा के तनाव में आ गए थे और फरहान की अपनी अलग राम-कहानी चल रही थी कि निशा के उससे पुनः दूरियां बना लेने पर उसने उसे अपना प्यार दिखाने के लिए अपने हाथ पर रेज़र से कुरेदकर निशा का नाम लिख लिया था।
                   खैर अब मामला गम्भीर न होकर हमारे लिए और भी ज्यादा हास्यपूर्ण और फालतू बन गया था और हम अब फरहान पर उसके सामने ही खुलकर हंसने लगे थे।एक दिन किसी पीरेड में, किसी विषय के टीचर के अनुपस्थित होने पर एक नई टीचर जी आई, जिनकी नज़र फरहान के घाव पर गई और वे सबकुछ समझ गई और धीमे से फरहान से बोली- ‘‘मैं तो किसी के लिए अपने खून की एक बूँद भी न गिराऊं।अपनी ज़रा-सी उंगली भी न काटूँ।’’
                   यह बात मेरे उसी परम मित्र ने फिर सुन ली जो फरहान के फालतू-से प्रेम-प्रसंग पर खुलकर हंसी निकालता था और उसे समझाता भी था।वह बोला- ‘‘मैडम जी!मैं तो किसी के लिए अपना छोटा-सा एक नाखून भी न काटूँ।’’ इस बात पर पूरी क्लास सहित वो टीचर जी भी हंस पड़ी, जो पहले फरहान के घाव को देखकर थोड़ी गम्भीर हो गई थी।
                   अब फरहान का वह घाव भी बस केवल हंसी का पात्र बनकर रह गया था और कोई भी उस पर ध्यान नहीं दे रहा था, शायद इसी वजह से फरहान थोड़ा परेशान दिखने लगा था।फरहान के तथाकथित घायल हुए प्रेम का (जो वह प्रदर्शित करना चाहता था) जबर्दस्त मखौल बन पड़ा था।
                   न तो निशा अब फरहान पर ध्यान दे रही थी, न तो कक्षा के बच्चे उसे कोई ऐतिहासिक प्रेमी मानने को तैयार थे और ऊपर से वार्षिक परीक्षा में आठ ही दिन बाकी थे।कलाबाजी करते हुए पूरा साल बीत चुका था और अब फरहान शायद सचमुच में परेशान दिखने लगा था।
                   परीक्षाएं सम्पन्न हुई और होना क्या था, दुबले पतले कंकालनुमा फरहान साहब परीक्षा में निपट गए और उनकी भारी-भरकम बेगम साहिबा ‘निशा’ जी परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होकर अगली कक्षा में निकल गई।मजबूरन स्कूल से उन कंकाल साहब को निकलना पड़ा।हालाकि अच्छी बात यह थी कि फरहान साहब की ‘राजनीति जमी है’ वाली बात सही निकली कि स्कूल वाले उन्हें उत्तीर्ण तो कर ही देंगे।वाकई में फरहान साहब को उत्तीर्ण का सर्टिफिकेट दिया गया।लेकिन उन्हें इसके लिए स्कूल से जाना पड़ा।फरहान जैसे कलाबाजी में इतने योग्य, कर्मठ, लगनशील विद्यार्थी को भी हमारे प्रतिष्ठित विद्यालय ने उत्तीर्ण का सर्टिफिकेट देकर ससम्मान और सहर्ष विदाई दी थी।
                   लेकिन कलाबाजी भी उस ब्रह्माण की तरह है, जो कभी खत्म नहीं हो सकता।दूसरी स्कूल में जाकर भी उनकी ‘आखिरी फैसले’ के लिए कलाबाजी जारी है।हालाकि अब उनका खर्चा ज्यादा होता है, क्योंकि अब वे मोटर-साईकिल पर बैठकर निशा के घर के आगे कलाबाजी करते है क्योंकि स्कूल में तो अब मिलना हो नहीं पा रहा है।खैर उनका चमचानुमा मित्र ‘विमल’ अभी भी फरहान का साथ दे रहा है और अक्सर फरहान के द्वारा भेजी गई कोई गिफ्ट, चाॅकलेट या चिट्ठी निषा केे पास पहुंचाता रहता है। एक तरीके से वो उन दोनों के बीच जंगली सुस्त-से कबूतर का कार्य कर रहा है, सलीम-अनारकली के कबूतर का।‘निशा’ जी अभी भी फरहान साहब को ‘आखिरी फैसले’ की तारीख नहीं दे रही है और बीच-बीच में उनका मोबाइल पर काॅल उठाना बन्द कर देती है।
                   फरहान के हाथ का घाव अब भर चुका है और सुनने में आ रहा है कि उन्होंने दूसरी स्कूल में ‘अन्जू’ नाम की किसी लड़की पर हवाबाजी व कलाबाजी जोरो-शोरो से गाजे-बाजे के साथ शुरू कर दी है।एक दिन फरहान जी हमें मिले तो मैंने इस बात की पुष्टि के लिए ‘अन्जू’ के बारे में बनावटी गम्भीरता से पूछा- ‘‘फरहान यार!लोग अन्जू नाम की लड़की से तेरे चक्कर के बारे में बहुत बातें कर रहे है?’’
                   फरहान जी मुस्कराए और बोले- ‘‘अरे!नहीं यार! मैं तो सच्चा प्यार केवल निशा से ही करता हूँ और करता रहूँगा।’’
                   मैंने सहमति में अपनी हंसी को दबाते हुए गर्दन हिलाई और बनावटी सहानुभूति से बोला- ‘‘वैसे तू स्कूल से निकाल दिया गया, यह अच्छा नहीं हुआ।’’
                   फरहान जी गम्भीर मुद्रा में आकर बोले- ‘‘अरे!अब तुझे क्या बताऊं...। चैहान सर जो है न, वे निशा के रिश्तेदार है।उन्हें मेरे और निशा के चक्कर के बारे में पता चल गया था।इसलिए उन्होंने राजनीति खेलकर, मुझे स्कूल से निकलवाया है।वरना मैं तो पास होता ही।और वो गणित के सर ने भी कोचिंग जाने के बाद भी कोई परीक्षा का पेपर-वेपर नहीं दिया।’’
                   मैं फिर हंसा और फरहान से विदा लेकर चल दिया।सोचने लगा कि ऐसा भी होता है कहीं?सोचता हूँ कि कितनी सच्चाई थी उस फरहान की बातों में।खैर मुझे क्या मतलब, जो मैं उसके बारे में सोचूं।लेकिन फिर भी, कुछ तो सीख मिलती ही है कि हमें जिन्दगी में किस-किस तरह की बेवकूफियां नहीं करना चाहिए।किसी की मूर्खता भी उपयोगी है, दूसरों को सिखाने के लिए।
                   बहरहाल फरहान के चाचा जी शहर के अच्छे राजनीतिज्ञ व्यक्ति है।इसलिए कंकालनुमा फरहान साहब शहर के युवा मीडिया प्रभारी हो गए है।वैसे भी वो कलाबाजी के लिए फालतू घूमते रहते थे। अब घूमते हुए कुछ काम कर लिया करेंगे।
                   फरहान साहब ने अब तक कलम पकड़ना भी नहीं सीखी है और वे मीडिया प्रभारी है।लेकिन क्या करें, भ्रष्टाचार तो हर जगह है।यहां हमें कलम घिसते हुए सालों बीत गए और किसी ने पानी तक का नहीं पूछा और उधर कलाबाज कंकाल मीडिया प्रभारी है।
                   शरीर की कंकालियत तो ठीक है, लेकिन प्रतिभा से कंकाल मीडिया प्रभारियों के कारण ही आज हमारी भ्रष्टाचार से ग्रसित हो चुकी व्यवस्थायें भी कंकाल ही बनी हुई है।
                   खैर यहां हमारा दुखड़ा कौन सुनेगा। हमारे चाचा जी राजनीतिज्ञ थोड़े न है।हमारे पास तो बस प्रतिभा है।उसके अलावा कलाबाजी, हवाबाजी और मोटर-साईकिल है ही कहां।
                   वैसे आज भी फरहान साहब का ‘आखिरी फैसला’ टला हुआ है और हमारी प्रतिभा भी इस भ्रष्ट समाज में नैतिकता की कमतरी और भ्रष्ट राजनीति के फूहड़ वातावरण की अदालत में ‘आखिरी फैसले’ पर ही रूकी हुई है।
                   आश्चर्य है, हमने खूब अच्छा पढ़ा, खूब अच्छा लिखा और हम भी ‘आखिरी फैसले’ के इन्तजार में है। और वे कलाबाज कंकाल भी कलाबाजी करने के बाद ‘आखिरी फैसले’ के इन्तजार में है।खैर वो मीडिया प्रभारी साहब है। उन्हें हम ज्यादा कुछ नहीं कह सकते, क्या पता हम प्रतिभा वालों को वे कब धर दबोचे।
                   प्यार तो हमने भी किया, साहित्य से, समाज की भलाई से और अपनी लेखनी से।अपनी कलम की नोंक से अपने समाज के सजग घावों को कुरेदा।लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए हाथों को रेज़र से कुरेदने वालों के आगे हमारी महत्ता कहां?
                   हमारी भी अपनी लेखनी से किए गए प्रेम की कथा है।लेकिन उसे कौन सुनेगा व सलाम देगा।हम तो छोटे-मोटे कलम-घिसैया जो ठहरे।वे तो भई!युवा मीडिया प्रभारी है, उनकी प्रेम-कथा को तो सलाम ठोंकना ही पड़ेगा।
                   तो दर्जनभर भ्रष्ट नेताओं सहित हमारी व हमारी पराजित प्रतिभा के सम्पूर्ण समाज की ओर से युवा मीडिया प्रभारी साहब को उनके सफल भविष्य के लिए मंगलकामनाओं सहित ढेरों बधाईयां।...


                                                  -अंकुर  नाविक,  मो. नं.-8602275446, 7869279990
                                                    ई-6, सांई विहार काॅलोनी,      
                                                   किशनगन्ज, महू ,मध्यप्रदेश।    
                                                    पि. को.-453441
                                         
                      

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